Pratapgarh: प्रतापगढ़ जिले का सीतामाता जंगल वन उपज और यहां के वन्य जीवों की अनोखी तादा का होना देशभर में अपनी अलग ही पहचान रखता है. सीतामाता के जंगलों में कई रोचक तथ्य है जो आपकी वनों और पर्यावरण के प्रति रूचि बढ़ाएगें. सीतामाता के जंगल में बहु तादाद में दीमक जिसे स्थानीय भाषा में उददी भी कहते है पाए जाते हैं. 


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यह एक प्रकार का कीट है जो मुख्यत ट्रॉपिकल क्षेत्रों और वनों में पाया जाता हैं. प्रतापगढ़ के जंगलों में भी यह अच्छी संख्या में दिखाई देते है. सीतामाता के जंगलों में दीमक के 8 से 10 फिट टीले नुमा घर जंगल की खूबूसरती में भी चार चांद लगाते है. जंगल में भ्रमण के दौरान जगह जगह दीमक के टीले आसानी से नजर आ जाते है. पर्यावरण प्रेमी के अनुसार दीमक के इन घरों की उम्र भी कई हजार साल पुरानी है. 


यह कीट समूहों में बस्तियां बना कर रहता है. दीमक अपने घरों का निर्माण मिट्टी और पानी के इस्तेमाल कर अपनी लार से करती है. 24 घंटे जगने वाला यह कीट रंग में हल्का पीला या भूरा होता है. इनका मुख्य आहार लकड़ी है. पर्यावरण प्रेमी मंगल मेहता के अनुसार कुछ 4 प्रजाति की दीमक खोजी गई है जो वनों के लिए बिल्कुल भी हानिकारक नहीं है.


यह अत्यधिक पारिस्थितिक महत्व के कीट हैं, जो जैवविविधता व इसके संतुलन में महत्वपूर्ण कारक है. प्रकृति सम्मत हिन्दु संस्कृति में दीमकों की बाम्बी यानी टीलों का क्षेत्र में पाया जाना शुभ माना जाता है. पर्यावरण विज्ञान में भी सिद्ध होता है कि वनों में दीमकों का संतुलित तादाद में होना, उसके स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र को दर्शाता है. यह मिट्टी की गुणवत्ता के लिए अति महत्वपूर्ण है.


पर्यावरण प्रेमी मंगल मेहता बताते है कि जंगल में दीमक के घर स्वच्छ मीठे जल की उपस्थिति दर्शाते हैं. साथ ही यह स्वयं जल संग्रहण में उपयोगी है. बाम्बी में छोटे-बड़े बिलों से होकर बारिश का पानी जमीन में गहराई तक बड़ी आसानी से पहुंच जाता है और भूमिगत जल स्रोतों का पुनर्भरण कर देता है. इसकी कुछ प्रजातियां हरे पेड़ पोधों के लिए बिल्कुल भी हानिकारक नहीं है. जिन्हें बढ़ावा देकर वनों के घटते जलस्तर व सूखती नदियों को बचाया जा सकता हैं. दीमक के टीले के बारे में सबसे रोचक बात यह है कि प्राचीन काल में इसके द्वारा भूमिगत जल का पता लगाया जाता था.


ग्रन्थ बृहत्संहिता, तैत्तरीयआरण्यक और जल,खगोल वैज्ञानिक वराहमिहिर ने अपने शास्त्रों में जल अन्वेषण के कई सूत्र दिए हैं. जिन्हें आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी अनुसंधान करते हुए सत्य पाया है. वराहमिहिर ने भूमिगत जल को खोजने के लिए दीमक की बांबी (घर) का पूर्व लक्षण के रूप में बार-बार उल्लेख किया है. 


बतया गया है कि जहां भिलावा, बेल, तेंदु, अंकोल, सिरस, फालसा, तिलक, अंबाड़ा, अंजन, अशोक, वारण, पिंडार, अतिबला, आदि वृक्षों में से किसी भी एक वृक्ष के नीचे दीमक का घर दिखाई दे तो वहां इन वृक्षों से तीन हाथ उत्तर दिशा की 30 फिट नीचे खुदाई करने पर जल उपलब्ध होता है. यदि दीमक की बांबी के ऊपर दूब या सफेद कुशा दिखलाई दे तो उसके नीचे कुंआ खोदने पर 155 फिट की गहराई पर जल मिलता है.


इनको लेकर एक्सपर्ट व्यू जाना गया तो डीएफओ सुनील कुमार ने बताया कि दीमक के घरों की साइंटिफिक बात अगर की जाए जंगलों में दीमक की कॉलोनियां बनी हुई होती है. जिन जगहों पर इनके घर दिखाई देते हैं या दीमक बहू आयात में पाए जाते हैं मतलब एक इंडिकेटर है कि यहां की मिट्टी स्वस्थ है. स्वस्थ मिट्टी का पता दीमक के घरों से लगाया जा सकता है. जो मिट्टी उपजाऊ है, जिसमें नमी ज्यादा है उस जगह पर यह अधिक मिलती है. 


दीमक नेचर में रीसाइकलिंग का काम करते हैं. ऑर्गेनिक वेस्ट जैसे अगर जंगल में कोई पेड़ गिर गया है गलने लग जाता है उसे खाकर उस जगह पर यह दीमक अपने घर बनाना शुरू करते हैं. जंगल में नमी और पानी वाली जगह पर ही दीमक अपने घर बनाती है. पथरीली इलाकों में यह कम पाई जाती है. जंगल में हर चीज के कंट्रोल करने की क्षमता होती है. दीमक अधिक होने पिंगोलियन और अन्य जीव इनको खत्म करते हैं. 


जंगल में फॉरेस्ट इकोसिस्टम चलता है. दीमक के घरों के नीचे भी इनकी बहुत बड़ी कॉलोनी होती है जमीन के भीतर भी दीमक बड़ी संख्या में पाई जाती है. नमी और उपजाऊ मिट्टी में अपने घर बनाकर पानी के सोर्स का भी इससे पता लग सकता है.


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