Ram Temple Story:  तारीख- 22 जनवरी 2023, समय दिन के 12 बजे, जगह- अयोध्या. आप समझ ही गए होंगे कि किस खास प्रसंग का जिक्र होने जा रहा है. इस खास दिन, खास मुहुर्त में पीएम नरेंद्र मोदी भव्य राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा करने वाले हैं.इस दिन का इंतजार हर एक को बेसब्री से है. एक ऐसा मामला जो दशकों तक अदालती प्रक्रिया से गुजरा, सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष हुआ था. उस संघर्ष को एक खास नाम मिला जिसे राम मंदिर आंदोलन से जाना गया. इस आंदोलन के दौरान बलिदान भी देना पड़ा जिन्हें कारसेवक का दर्जा मिला था. वैसे तो राम मंदिर का मामला 1949 में अदालत की दहलीज तक जा पहुंचा था. तब से लेकर 2019 तक यह आंदोलन उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरा. सड़क, सियासत, अदालती फैसले के बाद अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो रहा है. वैसे तो इस आंदोलन के कई चरण हैं लेकिन 1990 का जिक्र करना भी जरूरी हो जाता है.


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सड़क से आंदोलन का आगाज

वैसे तो राम मंदिर के मुद्दे को विश्व हिंदू परिषद के साथ दूसरे हिंदू संगठन आवाज दे रहे थे. उस आवाज का असर भी हुआ था जब तत्कालीन राजीव गांधी सरकार को कुछ अहम फैसला लेना पड़ा था. राजीव गांधी सरकार के फैसले के बाद तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियां भी इस तरह से बदलीं कि भारतीय राजनीतिक में अलग प्रयोग हुआ जिसकी कल्पना भी शायद संभव नहीं थी. केंद्र की सत्ता पर वी पी सिंह काबिज थे. लेकिन सरकार चलाने के लिए उन्हें बैसाखी का सहारा लेना पड़ा. दो ऐसे विचार एक साथ आए जो भारतीय राजनीति में किसी करिश्मे से कम नहीं थी. बीजेपी और वाम दल दोनों बाहर से वी पी सिंह सरकार को समर्थन दे रहे थे. यह वो दौर था जब वी पी सिंह खुद अपनी ही पार्टी में कई तरह की चुनौतियों का सामना भी कर रहे थे. इन सबके बीच बीजेपी के रणनीतिकारों को लगा कि अगर राम मंदिर आंदोलन के संदर्भ में वो किसी तार्किक भूमिका में अपने आपको को पेश करते हैं तो उसका फायदा मिलेगा.


सियासी एंट्री
इस तरह की परिस्थितियों में बीजेपी ने एक बड़ा फैसला लिया और वो फैसला रथयात्रा से जुड़ा था. लालकृष्ण आडवाणी को रथ पर सवार होकर सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा करनी थी. जाहिर सी बात थी कि बीजेपी के इस फैसले से ना वी पी सिंह की सरकार खुश थी और ना ही वाम दल. सभी तरह के विरोध को दरकिनार कर 25 सितंबर 1990 को लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से रथ यात्रा का आगाज कर दिया. करीब 10 हजार किमी की यात्रा, 10 राज्यों से गुजरते हुए 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या में समाप्त होनी थी. इस यात्रा के मकसद को वी पी सिंह की पार्टी जनता दल समझती थी. इस रथयात्रा के राजनीतिक नफा नुकसान को समझ बिहार के तत्कालीन सीएम लालू यादव ने बड़ा फैसला किया और 25 अक्टूबर 1990 को समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया. वी पी सिंह सरकार को पता था कि इसका नतीजा क्या होने वाला है. बीजेपी ने समर्थन वाली बैसाखी को खींच लिया और वी पी सरकार गिर गई. हालांकि भारतीय राजनीति में यह स्पष्ट तौर पर स्थापित हो गया कि राम मंदिर आंदोलन को सियासी चेहरा मिल चुका है जिसका नाम भारतीय जनता पार्टी है.


1990 में तेजी से बदले हालात

1990-91 के बाद राजनीतिक हालात तेजी से बदल चुके थे. राम मंदिर आंदोलन अपने चरम पर था और देश के सबसे बड़े सूबे यूपी में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी. मुलायम सिंह यादव बीजेपी के खिलाफ खुद को अल्पसंख्यक वर्ग के रहनुमा के तौर पर पेश भी कर रहे थे. अयोध्या के माहौल को कारसेवकों ने गरमा दिया था वो राम मंदिर की लड़ाई में किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे. किसी भी हद तक जाने के इस जुनून में मुलायम सिंह यादव को खुद के लिए उम्मीद नजर आई थी. कार सेवकों पर फायरिंग का आदेश दिया जिसमें 20 से अधिक कार सेवक मारे गए हालांकि गैर आधिकारिक आंकड़ा सैकड़ों का था. उस घटना के बाद यूपी में ध्रुवीकरण की राजनीत तेज हुए और उसका फायदा बीजेपी को मिला. कल्याण सिंह यूपी की सत्ता पर काबिज थे. समय का चक्र आगे बढ़ता रहा और तारीख 6 दिसंबर 1992 की आई. इस दिन कारसेवक बाबरी मस्जिद के गुंबदों पर चढ़े और मस्जिद जमींदोज हो गई.


2019 में सुप्रीम फैसला

बाबरी मस्जिद के जमींदोज होने को अलग अलग तरह से पेश किया गया. किसी के लिए शौर्य का काम तो किसी के लिए गंगा जमुनी तहजीब पर धब्बा आया. कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त कर दी गई. इस तरह से राजनीति ने खुद के लिए दिशा तलाशी और सियासी दलों को भी अवसर मिला, इन सबके बीच राम मंदिर आंदोलन अदालत में जजों के सामने खुद के लिए फैसले की उम्मीद कर रहा था. इस संबंध में फैसला भी आया और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि विवादित जगह का भगवान राम लला से संबंध है. जाहिर सी बात है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई और 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विवादित जगह ही राम लला विराजमान थे और इस तरह से राम मंदिर बनने का रास्ता साफ हो गया.