नई दिल्लीः पूरी दुनिया में एक अरब यानी सौ करोड़ से ज़्यादा बच्चे दो साल पहले तक स्कूल जा रहे थे. लेकिन कोरोना आया, तो सबसे पहले सरकारों ने स्कूलों को बंद कर दिया, क्योंकि बच्चों की सुरक्षा का सवाल था. छोटे बच्चों को कोरोनावायरस से बचाना ज़रूरी था. दूसरी चिंता भी बच्चों से ही जुड़ी थी कि उनकी पढ़ाई कैसे होगी? इसके लिए ऑनलाइन पढ़ाई को विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया गया. पिछले दो साल से अधिकतर बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन ही चल रही है, जिसके फ़ायदे और नुक़सान पर लगातार स्टडी भी की जा रही है. ऐसी एक रिसर्च अभी आई है, जो भारत पर केंद्रित है, क्योंकि विश्व में स्कूल जाने वाले जितने बच्चे हैं, उनमें 25 करोड़ से अधिक स्कूली बच्चे भारत में हैं.


स्कूल बंद होने का बच्चों पर क्या असर हुआ?


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

अमेरिका की एक निजी एजेंसी Boston Counsulting Group ने ये पता लगाने के लिए एक रिसर्च की है कि कोरोना के कारण स्कूल बंद होने का बच्चों पर क्या असर हुआ? इस रिसर्च में जो सबसे बड़ी बात पता चली, वो ये थी कि ऑनलाइन पढ़ाई से बच्चों को सामाजिक और भावनात्मक ज्ञान मिलना बंद हो गया. क्योंकि बच्चे स्कूल जाकर दूसरे बच्चों से भी बहुत कुछ सीखते हैं. स्कूल में दूसरे बच्चों और शिक्षकों के साथ संवाद का मौक़ा मिलता है. उसमें कुछ बातें बच्चों को अच्छी लगती हैं और कुछ बातें बुरी भी लगती हैं. अच्छी बात पर कैसे रिएक्ट करना है और बुरी बात पर अपनी भावनाएं कैसे व्यक्त करनी हैं, ये बच्चे स्कूल में सीखते हैं. लेकिन, ऑनलाइन क्लास में ऐसी सुविधा बच्चों को नहीं मिल पाई, इसलिए 90 परसेंट से ज़्यादा बच्चों को पिछले दो साल से सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा से वंचित रहना पड़ा.


स्कूलों के शिक्षक भी जूझ रहे संकट से


स्कूलों के शिक्षक भी इसी संकट से जूझ रहे हैं. क्योंकि बच्चे जब पढ़ने के लिए स्कूल आते थे, तब हर बच्चे के साथ शिक्षकों का भावनात्मक संबंध जुड़ जाता था. वो बच्चों का चेहरा देखकर समझ जाते थे कि किस बच्चे को पाठ समझ में आया और किसे नहीं समझ में आया? बच्चे ने होमवर्क किया या नहीं? होमवर्क नहीं किया, तो उसका कारण क्या था? ऐसी तमाम बातों पर शिक्षकों का ध्यान रहता था, लेकिन ऑनलाइन पढ़ाई में ये भी संभव नहीं था इसलिए रिसर्च में 80 प्रतिशत से ज़्यादा शिक्षकों ने माना कि ऑनलाइन पढ़ाते समय वो चाहकर भी बच्चों के साथ भावनात्मक जुड़ाव नहीं रख पा रहे हैं, जो ना तो बच्चों के लिए उचित है और ना ही टीचर के लिए ठीक है. शिक्षकों के लिए एक चुनौती ये भी है कि उन्हें पढ़ाने के बाद परीक्षा भी ऑनलाइन ही लेनी पड़ रही है. अब ऑनलाइन टेस्ट देने वाले कितने बच्चे पढ़ाई करके उत्तर दे रहे हैं और कितने बच्चे नक़ल कर रहे हैं, या चोरी से किसी की मदद लेकर उत्तर दे रहे हैं, ये पता लगाने के लिए शिक्षकों के पास कोई उपाय नहीं है.


अभिभावकों को नई चिंता सताने लगी


पढ़ाई और परीक्षा की जितनी चिंता बच्चों और शिक्षकों को होती है, उतनी ही चिंता अभिभावकों को भी रहती है. स्कूल जब खुले होते थे, तब अभिभावक आपस में बात भी करते थे कि बच्चों के साथ माता-पिता की भी परीक्षा होती है, लेकिन कोरोना संकट से स्कूल बंद हुए, तो अभिभावकों को नई चिंता सताने लगी, क्योंकि छोटे शहरों और गांवों के स्कूलों में ऑनलाइन पढ़ाई तो जैसे-तैसे हो रही है, लेकिन ऑनलाइन परीक्षा लगभग बंद ही हो गई. इस रिसर्च में 71 प्रतिशत अभिभावकों ने यही बताया कि तीन-तीन महीने तक उनके बच्चे का कोई टेस्ट ही नहीं लिया गया. टेस्ट या परीक्षा नहीं ली गई, तो अभिभावकों को ये भी पता नहीं चल पा रहा कि बच्चे को ऑनलाइन पढ़ाई से कुछ समझ में आ रहा है, या फिर वो कंप्यूटर और मोबाइल पर केवल टाइम पास कर रहा है क्योंकि बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई तो चल ही रही है. बच्चे टाइम पर अपना मोबाइल या कंप्यूटर खोलकर बैठ जाते हैं. इस बात से भी अभिभावकों की चिंता बढ़ गई है, क्योंकि जब स्कूल खुलते थे, तो बच्चों के सोने का, जगने का, स्कूल जाने का, खेलने का, खाने का, हर बात का टाइम टेबल था. लेकिन इस स्टडी में 49 प्रतिशत माता-पिता ने माना कि जबसे ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हुई है, तब से बच्चों के ना तो पढ़ने का समय निश्चित है, ना सोने का समय तय है और ना खाने-पीने का. बाहर खेलना-कूदना भी लगभग बंद ही है.


भारत में की गई है रिसर्च


ये रिसर्च भारत में की गई है, लेकिन स्कूल बंद होने और ऑनलाइन पढ़ाई का साइड इफ़ेक्ट मात्र भारत पर नहीं पड़ा है. पूरी दुनिया में स्कूली छात्र-छात्राओं के सामने एक जैसा संकट है. यूनिसेफ़ यानी United Nations International Children's Emergency Fund की एक रिपोर्ट आई है, जिसमें बताया गया कि कोरोना के कारण आंशिक या पूर्ण रूप से स्कूल बंद होने का दुष्परिणाम 63 करोड़ 50 लाख से अधिक बच्चों को भुगतना पड़ रहा है क्योंकि ऑनलाइन पढ़ाई में बहुत से बच्चों को पाठ्यक्रम ही समझ में नहीं आ रहा. अमेरिका के कई राज्यों के स्कूलों में तीसरी ग्रेड में पढ़ने वाले दो तिहाई बच्चों को गणित के सवाल हल करने में परेशानी हो रही है. ग़रीब और कम आमदनी वाले देशों में तो 10 साल की उम्र वाले, सौ में से 70 बच्चे साधारण वाक्य भी लिख-पढ़ नहीं पा रहे हैं.


सब जगह चुनौतियां अलग तरह की


हमें एक बात याद रखनी चाहिए कि अलग-अलग देशों, राज्यों, शहरों और गांवों की परिस्थितियां अलग हैं, इसलिए चुनौतियां भी सब जगह अलग तरह की हैं. शहर में रहने वाले बहुत से अभिभावक आपको मिल जाएंगे, जो ऑनलाइन पढ़ाई से संतुष्ट हैं. और स्कूल खुलने पर भी अपने बच्चे को भेजने के लिए तैयार नहीं हैं. उनके बच्चों की पढ़ाई के लिए कंप्यूटर, लैपटॉप, स्मार्ट फ़ोन की सुविधा है. घर में वाई-फ़ाई का कनेक्शन है और बिजली चली जाए, तो इन्वर्टर और जेनरेटर का पावर बैकअप भी है. ऐसे परिवारों के बच्चों के लिए ऑनलाइन ही सबसे अच्छा विकल्प महसूस हो रहा है, लेकिन जो लोग छोटे शहर या गांव में हैं, उनके लिए ऑनलाइन पढ़ाई का कोई अर्थ नहीं है.