DNA Analysis: देश के बच्चों में खतरनाक लेवल पर बढ़ता जा रहा डिप्रेशन, क्या ये बड़ी वजह है जिम्मेदार?
DNA on Increasing Suicide Cases in Children: दुनिया में जब से कोरोना महामारी शुरू हुई है, तब से बच्चों में सुसाइड के मामलों में तेजी आई है. इसकी वजह पर रिसर्च कर रहे डॉक्टरों को अब एक बड़े कारण का पता चल गया है.
DNA on Increasing Suicide Cases in Children: राजस्थान के अलवर में 15 साल के एक लड़के ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसकी मां उसके लिए समय नहीं निकाल पा रही थी. इस लड़के की मां एक सरकारी स्कूल में टीचर की नौकरी करती है. उसके लिए नौकरी के साथ घर को सम्भालना काफी मुश्किल हो रहा था. ये लड़का चाहता था कि उसकी मां उसे स्कूल की नई यूनिफॉर्म दिलाए. जिस दिन इसने आत्महत्या की, उस दिन इसकी मां का जन्मदिन था. सुबह इसने अपनी मां से यूनिफॉर्म दिलाने की ज़िद की लेकिन इसकी मां ये कहते हुए घर से चली गई कि उन्हें स्कूल के लिए देरी हो रही है और वो बाद में यूनिफॉर्म दिलाने के बारे में सोचेंगी. अपनी मां की इस बात से वह लड़का इस कदर आहत हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली.
मां की अनदेखी से बेटे ने दे दी जान
अपने सुसाइड नोट में इसने जो बातें लिखी, वो हैरान करती है. इसमें उसने अपनी मां के लिए ये लिखा कि अब आप कभी भी स्कूल के लिए लेट नहीं होंगी. दुनिया का सबसे अच्छा Birthday Gift. इसके आगे इसने Happy Birthday Mummyji भी लिखा है. यानी इसकी मां अपने काम की वजह से उसे समय नहीं दे पाई तो इसने अपनी जान ले ली. ये एक बहुत ही खतरनाक बात है. हमारे देश में बहुत सारे माता-पिता ऐसे हैं, जो अपने काम की वजह से अपने बच्चों को समय नहीं दे पाते.
बहुत सारे घरों में ऐसा होता है कि जब बच्चों के स्कूल जाने का समय होता है, उसी समय उनके माता-पिता का भी अपने काम पर जाने का समय होता है. जिसकी वजह से वो अपने बच्चों को ज्यादा समय नहीं दे पाते.
एक की आत्महत्या से 135 लोगों का जीवन प्रभावित
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक जब भी कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है तो उससे जुड़े करीब 135 लोगों का जीवन प्रभावित होता है. ये लोग गहरे दुख और अवसाद में चले जाते हैं. किसी भी जीवन की समाप्ति से उस व्यक्ति के जीवन साथी, बच्चे, परिवार, रिश्तेदार, दोस्त और साथी कर्मचारी बुरी तरह प्रभावित होते हैं. यानी आत्महत्या सिर्फ स्वयं पर की गई हिंसा नहीं है बल्कि ये उस व्यक्ति के करीबी लोगों को भी दुख पहुंचाती है.
एक और बात, अगर आप अपनी नौकरी से खुश नहीं हैं तो आप इसे छोड़ सकते हैं. अगर आप किसी रिश्ते से खुश नहीं हैं तो आप उससे भी अलग हो सकते हैं. लेकिन जीवन के साथ आप ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि जीवन का निर्माण आपने नहीं किया है. जिसका निर्माण आप नहीं करते, उसे नष्ट करने का अधिकार भी आपके पास नहीं है.
बड़ी बात ये है कि आज कल बच्चों में डिप्रेशन, तनाव और अवसाद बढ़ता जा रहा है. पुराने जमाने में जब माता-पिता बच्चों को डांट देते थे या स्कूल में टीचर उनके साथ सख्ती करते थे तो इससे बच्चे कभी डिप्रेशन में नहीं आते थे. लेकिन आज कल बच्चों में डिप्रेशन काफी सामान्य बात हो गई है. अब अगर किसी परिवार में बच्चों से उनका मोबाइल फोन भी ले लिया जाए तो वो इतनी सी बात से ही डिप्रेशन में आ जाते हैं.
बच्चों में बढ़ रही मानसिक तनाव की समस्या
2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 5 करोड़ बच्चे ऐसे हैं, जो मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं. इन बच्चों को डिप्रेशन और Anxiety की वजह से संघर्ष करना पड़ता है. इस तनाव ने बच्चों की मनोस्थिति और उनके स्वभाव को भी चिड़चिड़ा बना दिया है. National Center for Bio-technology Information द्वार किए गए एक अध्ययन में पता चला था कि भारत में 13 से 15 साल के हर चार में से एक बच्चे को डिप्रेशन की शिकायत है.
सोचिए, एक ज़माना था जब डिप्रेशन को बड़ों की बीमारी माना जाता था. लोग अक्सर यही कहते थे कि जब तुम बड़े हो जाओगे तो पता चलेगा कि तनाव क्या होता है, जीवन कितना मुश्किल होता है. लेकिन मौजूदा परिस्थितियों को देखकर ऐसा लगता है कि अब बच्चे बचपन में ही बड़े हो जा रहे हैं. उससे भी बड़ी बात ये है कि जिन बच्चों की मनोस्थिति ठीक नहीं होती या जो बच्चे अक्सर किसी ना किसी वजह से तनाव में रहते हैं, वो इसके लिए डॉक्टर की भी मदद नहीं ले पाते.
ये समस्या उन घरों में और भी ज्यादा है, जहां माता-पिता दोनों ही Working हैं. Assocham नाम की संस्था ने एक सर्वे किया था, जिसमें ये पता चला था कि जिस परिवार में माता-पिता दोनों काम करने के लिए घर से बाहर जाते हैं, वो अपने बच्चों को दिन में मुश्किल से 30 मिनट भी नहीं दे पाते. यानी ऐसे माता-पिता 24 घंटे में अपने बच्चों को मुश्किल से आधे घंटे का भी समय नहीं दे पाते. जिससे उन्हें कभी पता ही नहीं चलता कि उनके बच्चों के दिमाग में क्या चल रहा है.
बच्चों को दे पाती हैं केवल आधे घंटे का वक्त
इसी सर्वे में 60 प्रतिशत महिलाओं ने ये भी माना था कि अगर उन्हें पार्ट टाइम नौकरी मिल जाए तो वो अपने बच्चों को ज्यादा समय दे पाएंगी. जबकि फुल टाइम नौकरी में उनके लिए ऐसा करना मुश्किल होता है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, एक महिला औसतन 10 घंटे दफ्तर में बिताती है. ढाई घंटे का समय उसे दफ्तर आने जाने में लगता है. दिनभर में वो 6 से 7 घंटे की ही नींद ले पाती है और घर के दूसरे कामों में उसके तीन घंटे बीत जाते हैं. यानी मुश्किल से आधा घंटा ही उसे अपने बच्चों के लिए मिलता है.
कोविड शुरू होने के बाद बढ़ती जा रही समस्या
अलवर की घटना ये बताती है कि आज के दौर में बच्चे खुद को कितना अकेला महसूस करने लगे हैं और उन्हें आत्महत्या करना ज्यादा आसान लगता है. नैशनल Crime Records Bureau के मुताबिक, वर्ष 2018 में 9 हज़ार 413, 2019 में 9 हज़ार 613 और वर्ष 2020 में 11 हज़ार 396 बच्चों ने आत्महत्या की थी. यानी अगर आप इन आंकड़ों को देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि बच्चों में आत्महत्या की घटनाएं तेज़ी से बढ़ रही हैं. खासतौर पर कोविड के बाद से ये स्थिति और भी चिंताजनक हुई है. 2020 में हर दिन 31 बच्चों ने आत्महत्या की और हर घंटे एक से ज्यादा बच्चे ने डिप्रेशन और दूसरी वजहों से अपनी जान दे दी. हमें लगता है कि ये खबर देश के हर परिवार और हर माता-पिता से जुड़ी है.
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