आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भारतीय जीवनशैली को दुनिया के सामने पेश करने की आवश्यकता पर जोर देते हुए पिछले 2000 साल के बारे में कहा कि इस कालखंड में कई विचारधाराएं आईं. जीवन में सुगमता आई लेकिन सतत संघर्ष भी बढ़ा. इसलिए ही हमारे पुरखों ने आध्‍यात्मिकता के आधार पर सनातन धर्म को अपनाया. धर्म लोगों, समाज और प्रकृति को नियंत्रित करते हुए ईश्‍वर की तरफ उन्‍मुख करता है. ये धर्म ही है जो समाज की एकता का आधार है. भागवत ने मंगलवार को पुणे शहर के निकट पिंपरी चिंचवाड़ के औद्योगिक क्षेत्र में मोरया गोसावी संजीवन समाधि समारोह के उद्घाटन के अवसर पर इस बात पर भी जोर दिया कि भारतीय लोकाचार का सार सभी का कल्याण सुनिश्चित करने में निहित है.


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'ये भी गुजर जाएगा'
उन्‍होंने बताया कि केवल बदलाव ही शाश्‍वत है और इसको एक राजा और मंत्री के उदाहरण से समझाया. उन्‍होंने कहा कि मंत्री की आदत ये कहने की थी कि 'ये भी गुजर जाएगा'. भागवत ने कथा सुनाते हुए कहा कि जब राजा युद्ध में जीतकर लौटा तो नगाड़ों-जयकारों के बीच मंत्री ने कहा कि ये भी गुजर जाएगा. ये सुनकर राजा को गुस्‍सा आया लेकिन वो चुप रहा. कुछ समय बाद राजा अपने दल-बल के साथ जंगल में शिकार करने गया. वहां जंगली जानवर ने राजा पर हमला कर दिया. राजा ने जंगली जानवर को मार तो दिया लेकिन उसने उनके अंगूठे को नुकसान पहुंचाया. 


उसके कुछ दिन बाद राज्‍य में विद्रोह हो गया और राजा एवं मंत्री को बंदी बना लिया गया. जेल में भी मंत्री ने फिर यही कहा कि ये भी गुजर जाएगा. बाद में वफादारों के सहयोग से राजा और मंत्री जेल से आजाद हो गए और जंगल में भाग गए. वहां उनको किसी आदिवासी समूह ने पकड़ लिया और बलि देने का प्‍लान किया. लेकिन जब देखा कि राजा का अंगूठा नहीं है तो उनको अशक्‍त मानते हुए छोड़ दिया. उस वक्‍त राजा को पहली बार अपने मंत्री की बात ये भी गुजर जाएगा का महत्‍व समझ में आया. इस बात का मतलब था कि अच्‍छी और बुरी दशाएं जीवन में आती रहती हैं क्‍योंकि जीवन में कुछ भी स्‍थायी नहीं है. 


वापस देने की कला सीखें
इस उदाहरण के माध्‍यम से भागवत ने कहा, ‘‘विश्व व्यवस्था का सुचारू संचालन सुनिश्चित करने के लिए संतुलन और धैर्य बनाए रखना हर किसी की जिम्मेदारी है. भारतीय संस्कृति में हमेशा प्रकृति से जुड़ने की परंपरा रही है. आज के संदर्भ में इसे 'वापस देना' कहा जा सकता है. हमारे धर्म की संरचना 'वापस देने' के इसी सिद्धांत पर बनी है. हमारे पूर्वजों ने इसे पहचाना और इसे अपने जीवन में उतारा, क्योंकि प्रकृति स्वयं इस पहलू पर काम करती है.’’


उन्होंने कहा कि हमारे पूर्वजों ने न केवल धर्म में संतुलन की अवधारणा को समझा बल्कि उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह भी दर्शाया कि सभी के लिए सद्भाव और प्रगति सुनिश्चित करते हुए किस प्रकार शांतिपूर्ण तरीके से रहा जा सकता है.


उन्होंने कहा, ‘‘यह धर्म सभी का कल्याण और प्रगति सुनिश्चित करता है, यही कारण है कि भारत को बरकरार रहना चाहिए, विकास करना चाहिए और आगे का रास्ता दिखाना चाहिए. दुनिया को अपनी शानदार जीवन शैली दिखाना भारत की प्रमुख जिम्मेदारी है, ताकि अन्य लोग इसका अनुसरण कर सकें और सुख और समृद्धि प्राप्त कर सकें.’’


समावेशी जीवन और संतुलन को लेकर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भगवान गणेश का उदाहरण दिया. आरएसएस प्रमुख भागवत ने कहा, ‘‘भगवान गणेश का बड़ा पेट सभी के कर्मों के प्रति सहिष्णुता का प्रतीक है, जबकि उनके बड़े कान सभी की बात सुनने की उनकी क्षमता को दर्शाते हैं. उनकी लंबी सूंड हर स्थिति को समझने और उस पर प्रतिक्रिया करने की उनकी क्षमता को दर्शाती है.’’