DNA with Sudhir Chaudhary: राजद्रोह कानून जरूरी या मजबूरी, क्या खत्म होगा अंग्रेजों के जमाने का कानून?
DNA with Sudhir Chaudhary: आपके मन में भी सवाल होगा कि क्या राजद्रोह और देशद्रोह अलग होता है और ये कैसे तय होता है कि किसी व्यक्ति ने राजद्रोह किया है? वैसे तो IPC में कहीं भी देशद्रोह शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है. इसकी जगह सिर्फ राजद्रोह शब्द का ही जिक्र है.
DNA with Sudhir Chaudhary: अब हम आपको राजद्रोह कानून यानी Sedition Law के बारे में बताएंगे. मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने एक हलफनामे में बहुत बड़ी घोषणा की है, जिसमें उसने कहा है कि वो राजद्रोह कानून की समीक्षा करेगी और इसमें उचित बदलाव करने के लिए भी तैयार है. राजद्रोह कानून अंग्रेजों के जमाने का कानून है और आज हम आपको बताएंगे कि जो कानून अंग्रेजों ने भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले क्रान्तिकारियों के दमन के लिए बनाया था, उस कानून का आजाद भारत में आज भी दुरुपयोग हो रहा है.
राजद्रोह कानून पर सवाल
आज स्थिति ये है कि अगर आपने किसी सरकार के बारे में या किसी सरकार के फैसले के बारे में उसकी आलोचना कर दी तो आपके ऊपर भी राजद्रोह का मुकदमा चल सकता है. पत्रकारों पर भी इसका कई बार इस्तेमाल किया गया है और खास बात ये है कि ये एक गैर-जमानती अपराध है. इसके तहत अगर कोई व्यक्ति गिरफ्तार हो गया तो सरकारें उसे महीनों तक जेल में बन्द रख सकती हैं.
इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में आज लंबी बहस हुई और इस दौरान अदालत ने मोदी सरकार से पूछा कि क्या इस कानून की समीक्षा होने तक देशभर में राजद्रोह के लंबित मामलों को स्थगित किया जा सकता है? यानी जब तक ये फैसला नहीं हो जाता कि ये कानून रहेगा या नहीं, तब तक इसके तहत दर्ज किए गए मामलों को निष्क्रिय माना जा सकता है? इससे पहले केन्द्र सरकार की तरफ से अदालत में एक Affidavit पेश किया गया था, जिसमें खास तौर पर प्रधानमंत्री मोदी का जिक्र किया गया है.
कानून में बदलाव करेगी सरकार
इसमें लिखा है कि प्रधानमंत्री मोदी मानते हैं कि जब भारत आजादी के 75 वर्षों का जश्न मना रहा है, तब देश को गुलामी की याद दिलाने वाले कानूनों और व्यवस्था को पीछे छोड़ देना चाहिए. इसी में ये भी बताया गया है कि केन्द्र सरकार 2014 से अब तक 1500 से ज्यादा कानूनों को रद्द कर चुकी है और वो राजद्रोह कानून पर फिर से विचार करने और इसकी समीक्षा करने के लिए तैयार है. हालांकि सरकार की तरफ से ये भी कहा गया है कि जब तक वो इस कानून की समीक्षा नहीं कर लेती, तब तक अदालत को इस कानून पर सुनवाई करके अपना समय नहीं लगाना चाहिए. इससे Affidavit से पहले केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ये कहा था कि अदालत को इस कानून पर संदेह नहीं करना चाहिए बल्कि इसका दुरुपोग रोकने पर विचार करना चाहिए. संक्षेप में कहें तो मोदी सरकार अब इस कानून में उचित बदलाव करने के लिए तैयार हो गई है.
आपके मन में भी सवाल होगा कि क्या राजद्रोह और देशद्रोह अलग होता है और ये कैसे तय होता है कि किसी व्यक्ति ने राजद्रोह किया है? तो Indian Penal Code में कहीं भी देशद्रोह शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है. इसकी जगह सिर्फ राजद्रोह शब्द का ही उल्लेख किया गया है. राजद्रोह का अर्थ होता है सरकार और शासन व्यवस्था के खिलाफ किया गया विद्रोह. इसमें Indian Penal Code की धारा 124-A के तहत मुकदमा दर्ज होता है जिसके तहत अगर कोई व्यक्ति सरकार विरोधी सामग्री लिखता है या बोलता है, ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है.
देशद्रोह और राजद्रोह में क्या अंतर?
देशद्रोह का अर्थ माना जाता है, देश के खिलाफ किया गया विद्रोह या देश के खिलाफ युद्ध छेड़ना. इसमें Indian Penal Code की धारा 121 के तहत मुकदमा दर्ज होता है. हालांकि कानूनी भाषा में ऐसे मामलों को भी राजद्रोह की ही श्रेणी में गिना जाता है. लेकिन आम बोलचाल की भाषा में इसके लिए देशद्रोह शब्द का भी इस्तेमाल होता है.
बड़ी बात ये है कि हमारे देश की सरकारें इस कानून को बहुत पसन्द करती हैं. असल में राजद्रोह कानून कहता है कि अगर कोई व्यक्ति सरकारी विरोधी बातें लिखता है या बोलता है या इसका समर्थन करता है तो उस पर इस कानून के तहत मुकदमा दर्ज हो सकता है. यानी इस कानून का दायरा बहुत बड़ा है और दूसरी बात ये कि ये एक गैर जमानती अपराध है. यानी इस अपराध में गिरफ्तार होने वाले व्यक्ति को कोर्ट से जमानत लेनी पड़ती है, जिसमें काफी समय लग जाता है
और सरकारें महीनों तक आरोपी को जेल में बन्द रख सकती हैं.
राजद्रोह कानून का इतिहास
भारत में राजद्रोह कानून को अंग्रेज लेकर आए थे इसलिए इसे अंग्रेजों के जमाने का कानून भी कहा जाता है. पहली बार ये कानून ब्रिटेन में वर्ष 1661 में बना था. ब्रिटेन के बाद वर्ष 1798 में अमेरिका में भी इसी तरह के कानून को लागू किया गया. हालांकि अंग्रेजों के शासन से पहले भारत में इस तरह का कोई कानून नहीं था.
भारत में ये कानून वर्ष 1870 में लागू हुआ, जब देश के अलग अलग हिस्सों में अंग्रेजी सरकार का विरोध हो रहा था. अंग्रेज अपने खिलाफ विद्रोह की इन आवाजों को दबाना चाहते थे इसलिए उन्होंने राजद्रोह के इस कानून को भारत में भी लागू कर दिया, जिसके तहत उम्रकैद की सजा हो सकती थी.
अंग्रेजों ने वर्ष 1891 में इस कानून का पहली बार इस्तेमाल किया. उस समय संयुक्त बंगाल के एक पत्रकार जोगेंद्र चंद्र बोस पर राजद्रोह की धारा में मुकदमा दर्ज किया गया था. जोगेंद्र चंद्र बोस अंग्रेजी सरकार की आर्थिक नीतियों और बाल विवाह के खिलाफ बनाए गए कानून का विरोध कर रहे थे. अंग्रेजों को उम्मीद थी कि इस मुकदमे के बाद देश के दूसरे पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी उसका विद्रोह करने से भी डरने लगेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अंग्रेजी सरकार के खिलाफ विद्रोह की आग शांत नहीं हुई.
इसके बाद अंग्रेजों ने इस कानून को और सख्त बनाने का फैसला किया. वर्ष 1898 में एक संशोधन के तहत ये तय किया गया कि अगर कोई व्यक्ति राजद्रोह के मुकदमे में दोषी साबित होता है तो उसे देश निकाला की सजा भी हो सकती है. ऐसा भी कहा जाता है कि इसी कानून की वजह से भारत के लोगों में अंग्रेजों के प्रति नफरत और बढ़ गई थी. क्योंकि अंग्रेज भारत के लोगों को गूंगा और बहरा देखना चाहते थे.
लोकमान्य तिलक पर 2 बार चला मुकदमा
वर्ष 1898 से 1947 के बीच राजद्रोह का काफी दुरुपयोग हुआ. समाज सुधारक बाल गंगाधर तिलक पर दो बार राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और इनमें एक मामले में उन्हें 6 साल जेल की सजा भी हुई. बाल गंगाधर तिलक के अलावा वर्ष 1922 में महात्मा गांधी पर भी राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ. गांधीजी पर आरोप था कि उन्होंने यंग इंडिया नामक पत्रिका में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ लेख लिख कर लोगों को विद्रोह के लिए भड़काने की कोशिश की थी.
उस समय महात्मा गांधी ने अदालत में सुनवाई के दौरान ये भी कहा था कि राजद्रोह का कानून केवल आम लोगों की आवाज को दबाने के लिए है. महात्मा गांधी के अलावा शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव पर भी राजद्रोह के मुकदमे दर्ज हुए और वीर सावरकर को भी राजद्रोह के मामले में सजा हुई थी.
अंग्रेज लेकर आए थे कानून
अंग्रेजों ने इस कानून का इस्तेमाल स्वतंत्रता सेनानियों पर जुल्म करने के लिए किया और स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भारत में इस कानून की सबसे ज्यादा चर्चा थी. आप कह सकते हैं कि अंग्रेज इसी कानून की मदद से भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन को कमजोर कर रहे थे.
आजादी के बाद जब भारत की संविधान सभा का गठन हुआ, तब इस कानून को लेकर राय काफी बंटी हुई थी. संविधान सभा के ज्यादातर सदस्यों का मानना था कि ये कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करेगा और इसी वजह से भारतीय संविधान में तो राजद्रोह शब्द का कहीं जिक्र नहीं किया गया. लेकिन Indian Penal Code में धारा124-A के तहत राजद्रोह कानून को बरकरार रखा गया, जो आज तक चल रहा है.
यहां समझने वाली बात ये है कि आजादी के बाद देश की किसी भी सरकार ने इस कानून को समाप्त करने की कोशिश नहीं की. आज कांग्रेस इस कानून का खुल कर विरोध कर रही है लेकिन सच ये है कि कांग्रेस की सरकारों में इस कानून का सबसे ज्यादा दुरुपयोग हुआ.
2014 से पहले नहीं जुटाया गया डेटा
वर्ष 1962 में भारत के उस समय के नेता केदारनाथ सिंह ने जवाहर लाल नेहरू की सरकार को गुंडों की सरकार बताया था, जिसके बाद उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला और उन्हें इस मामले में दोषी पाया गया. यही नहीं तब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए राजद्रोह कानून को संवैधानिक माना था और ये कहा था कि ये कानून बरकरार रह सकता है लेकिन इसके कुछ दायरे होने चाहिए. केन्द्र सरकार ने भी अपने मौजूदा हलफनामे में इसी आदेश का जिक्र किया है.
यहां महत्वपूर्ण बात ये है कि 2014 से पहले देश में राजद्रोह से संबंधित मामलों का डेटा रिकॉर्ड नहीं किया जाता था. ये काम National Crime Records Bureau यानी NCRB ने वर्ष 2014 से ही शुरू किया. हालांकि एक News Portal के मुताबिक मनमोहन सिंह की सरकार में हर साल राजद्रोह के 62 मुकदमे दर्ज होते थे. लेकिन सोचिए आज वही कांग्रेस राजद्रोह कानून का विरोध कर रही है और इसे समाप्त करने की मांग कर रही है.
NCRB के मुताबिक वर्ष 2015 से 2020 के बीच देशभर में राजद्रोह के कुल 356 मामले दर्ज हुए, जिनमें 548 लोगों की गिरफ्तारियां हुईं. लेकिन इनमें से केवल सात मामलों में 12 आरोपियों को अदालतों में राजद्रोह के लिए दोषी माना गया. यानी राजद्रोह के मामलों में आरोपियों की गिरफ्तारी तो होती है लेकिन अदालत से वो आसानी से बरी भी हो जाते हैं और कुछ मामलों में ऐसा भी देखा गया है, जब सरकारें राजनीतिक मकसद से इस कानून का इस्तेमाल करती हैं.
ब्रिटेन ने अपने देश में खत्म किया कानून
उदाहरण के लिए हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने सांसद नवनीत राणा और उनके पति पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कराया था. क्योंकि नवनीत राणा ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के आवास के बाहर हनुमान चालीसा पढ़ने का आह्वान किया था. लेकिन बाद में मुम्बई की एक अदालत ने कहा कि इस मामले में राजद्रोह की धारा नहीं लगाई जा सकती.
प्रवीण तोगड़िया, कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी और हार्दिक पटेल जैसे कई नाम हैं, जिनपर राजद्रोह की धारा में केस दर्ज हुए है. इनमें कुछ मामले गम्भीर हैं तो कुछ में सरकारों पर इस कानून के दुरुपयोग के आरोप भी लगते रहे हैं. हालांकि ये बात आपको पता नहीं होगा कि अंग्रेजों के जिस कानून पर भारत में आज भी बहस हो रही है, उस कानून को ब्रिटेन की सरकार ने खुद वर्ष 2009 में ही समाप्त कर दिया था.
कानून को लेकर आए कई सुझाव
इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया में भी ये कानून वर्ष 2010 में समाप्त हो गया था और इसकी जगह वहां एक नया कानून लाया गया था, जो ये कहता है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार विरोधी सामग्री लिखता है या बोलता है और उसकी वजह से हिंसा भड़कती है या सामाजिक सौहार्द खराब होता है तो ऐसे मामले में आरोपी के खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है. भारत चाहे तो वो भी ऑस्ट्रेलिया की तरह राजद्रोह कानून की जगह एक ऐसा ही कानून ला सकता है क्योंकि इसमें अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का खास ध्यान रखा गया है.
इस पर वर्ष 2018 में Law Commission of India ने एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें इस कानून को लेकर कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे. जिनमें से एक सुझाव ये था कि, जब तक चुनी गई सरकार को हिंसा के माध्यम से अस्थिर करने की कोशिश नहीं होती, तब तक राजद्रोह का मुकदमा दर्ज नहीं होना चाहिए और ऐसे मामलों में अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को प्राथमिकता देनी चाहिए.