नई दिल्ली : चांद-सितारे वाले हरे झंडे पर बैन की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से दो हफ्ते में जवाब देने के लिए कहा है. यूपी शिया वक्फ बोर्ड के वसीम रिजवी ने याचिका में कहा है कि झंडे का इस्लाम से संबंध नहीं है. यह पाकिस्तान की पार्टी मुस्लिम लीग का झंडा है. मुस्लिम इलाकों में इसे फहराना गलतफहमी और तनाव की वजह बनता है.


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सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले भी केंद्र सरकार से झंडे को बैन करने वाली याचिका पर अपना जवाब देने के लिए कहा था. जस्टिस एके सिकरी की अध्यक्षता वाली दो जजों की पीठ ने अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि केंद्र सरकार इस मामले में अपनी राय बताए. कोर्ट ने उत्तर प्रदेश शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी की जनहित याचिका को स्वीकार कर लिया था. रिजवी ने 17 अप्रैल को यह याचिका दाखिल की थी.


इस्लाम से संबंध नहीं 
रिजवी का कहना है कि ये झंडे पाकिस्तान के राष्ट्रीय ध्वज से मिलते जुलते हैं. कुछ मौलवियों ने गलत तरीके से इस झंडे को इस्लाम से जोड़ दिया है, जबकि इनका इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है. उन्होंने कहा कि इस झंडे के कारण अकसर सांप्रदायिक तनाव फैलता है और दो समुदायों के बीच दूरी बढ़ती है. इसलिए इसे बैन कर देना चाहिए. दाखिल याचिका में कहा गया है कि पैगम्बर मोहम्मद साहब अपने कारवां में सफेद या काले रंग का झंडा प्रयोग करते थे.    


रिजवी ने कहा, 'मैंने सुप्रीम कोर्ट से चांद-सितारों वाले हरे झंडे पर तत्काल प्रतिबंध लगाने की मांग की है, क्योंकि ये झंडा पाकिस्तान और मुस्लिम लीग के झंडे से मिलता-जुलता है.' वसीम रिजवी का कहना है कि आधे चांद और तारे के निशान वाला यह हरा झंडा 1906 में आजादी से पहले पुरानी मुस्लिम लीग के वकार उल माली और मोहम्मद अली जिन्ना ने इजाद किया था.


मुस्लिम लीग से संबंध 
ये मुस्लिम लीग 15 अगस्त 1947 को खतम हो गई और उसके बाद पाकिस्तान में इसकी उत्तराधिकारी नई मुस्लिम लीग पार्टी बनी जिसका नाम पाकिस्तान मुस्लिम लीग और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (कायदे आजम) है. ये पार्टी पाकिस्तान में इस झंडे को अपने चिन्ह की तरह इस्तेमाल करती है. 


दूसरी ओर भारत में मुसलमान इस्लामिक झंडे की तरह इसका इस्तेमाल करते हैं. इस झंडे को मुस्लिम बहुल इलाके में फहराया जाता है जिससे कई बार हिंदू और मुसलमानों के बीच सौहर्द बिगड़ता है. याचिकाकर्ता का कहना है कि हरे झंडे में आधा चांद और तारा कभी भी इस्लामिक प्रैक्टिस का हिस्सा नहीं रहा और न ही इसकी इस्लाम धर्म में कोई महत्व है