Supreme Court: जेल में जाति आधारित भेदभाव पर सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख, कहा- ऐसे नियम खत्म हों
Caste Based Discrimination in Jails: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ लड़ाई कोई ऐसी लड़ाई नहीं है जिसे रातोंरात जीता जा सके. इसके लिए निरंतर प्रयास, समर्पण और असमानता को कायम रखने वाले सामाजिक मानदंडों का सामना करने और उन्हें चुनौती देने की इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है.
Caste Based Discrimination in Jails: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ लड़ाई कोई ऐसी लड़ाई नहीं है जिसे रातोंरात जीता जा सके. इसके लिए निरंतर प्रयास, समर्पण और असमानता को कायम रखने वाले सामाजिक मानदंडों का सामना करने और उन्हें चुनौती देने की इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है. अदालत ने कहा कि संविधान ऐतिहासिक अन्याय के खिलाफ लड़ाई का प्रमाण है और जाति के व्यापक प्रभाव को देखते हुए सभी नागरिकों के लिए समानता और न्याय सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रयास आवश्यक हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने करीब 11 राज्यों की जेल नियमावली के भेदभावपूर्ण प्रावधानों को खारिज कर दिया और जाति के आधार पर काम के बंटवारे और कैदियों को अलग-अलग वार्ड में रखने के चलन की निंदा की. प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि संविधान में मौलिक गलतियों के स्थान पर मौलिक अधिकारों को स्थापित करने का प्रावधान है. पीठ ने कहा कि संविधान के प्रावधानों के माध्यम से इसने सदियों पुरानी जाति-आधारित पदानुक्रमित सामाजिक व्यवस्था को हटा दिया, जो व्यक्तिगत समानता के सिद्धांत को मान्यता नहीं देती थी.
शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ लड़ाई कोई ऐसी लड़ाई नहीं है जिसे रातोंरात जीता जा सके, इसके लिए निरंतर प्रयास, समर्पण और असमानता को कायम रखने वाले सामाजिक मानदंडों का सामना करने और उन्हें चुनौती देने की इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है.’’ पीठ ने कहा, ‘‘जाति-आधारित भेदभाव की कुप्रथाओं का सामना करने पर इस न्यायालय को सक्रिय रुख अपनाना चाहिए. मौजूदा याचिका पर विचार करके यह न्यायालय जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए चल रहे संघर्ष में अपना योगदान दे रहा है.’’
पीठ ने कहा कि आधुनिक समय में आपराधिक कानूनों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे कानून के समक्ष समानता और कानूनों के समान संरक्षण से इनकार न करें. आपराधिक कानूनों को औपनिवेशिक या पूर्व-औपनिवेशिक दर्शन का समर्थन नहीं करना चाहिए. शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘संविधान लागू होने के बाद समाज में, सभी नागरिकों को कानून का समान संरक्षण प्राप्त हो, इसके लिए सकारात्मक कदम उठाने चाहिए. इसलिए संविधान पर किसी भी चर्चा में नागरिकों की वास्तविक वास्तविकताओं के प्रति सचेत दृष्टिकोण अपनाना चाहिए.’’
पीठ ने कहा, ‘‘इसके लिए यह मूल्यांकन करना आवश्यक है कि संवैधानिक प्रावधान उनके जीवन में किस तरह सार्थक परिणाम लाते हैं. विवादित प्रावधानों पर गौर करने से पहले हमें भारतीय संविधान के इस पहलू पर और चर्चा करनी चाहिए.’’
(एजेंसी इनपुट के साथ)