`राइट टू एज्यूकेशन के साथ राइट टू प्ले पर भी बातचीत की जाए`
पंकज रामेन्दु
साल 2008 में आई एनिमेशन फिल्म ‘वॉल–ई’का एक सीन है जिसमें कचरा घर बन चुकी धरती पर मौजूद इकलौता रोबोट (वॉल ई) जब भी कहीं से गुज़रता है तो स्क्रीन पर एक विज्ञापन चलने लग जाता है. इस कमर्शियल में एक जोश भरी आवाज़ बताती है कि किस तरह‘आप अपनी जिंदगी के पांच साल एक शानदार क्रूज़ पर बिता सकते हैं, वो भी एकदम स्टाइल में. जहां पूरी तरह ऑटोमैटिक क्रू आपकी हर चीज़ का ख्याल रखेगी और आपको एक कदम भी चलना नहीं पड़ेगा. बस क्रूज़ की ऑटोमैटिक हॉवरचेयर में बैठिए और बटन दबाते ही आपका सारा काम हो जाएगा. यहां तक की आपकी दादी-नानी भी इस क्रूज का मजा ले सकती हैं.’
फिल्म में बताया गया है कि किस तरह धरती एक डस्टबिन बन कर रह गई है और इस कचरे को सही जगह पर रखने के लिए धरती पर एक रोबोट मौजूद है- वॉल-ई. फिल्म बताती है कि इंसान तो इस डस्टबिन बन चुकी धरती से तकनीक की मदद से दूसरे ग्रह पर शिफ्ट हो गये हैं. लेकिन इसी तकनीक ने उन्हें इस कदर सुस्त और मोटा बना दिया है कि वो अपनी मर्जी से उठ भी नहीं सकते हैं. उनके पीछे एक स्ट्रेचरनुमा गाड़ी फिट है जिस पर वो हमेशा बैठे या लेटे रहते हैं. किसी भी चीज़ की ज़रूरत के लिए उन्हें बस बटन दबाना होता है और वो चीज़ उनके सामने आ जाती है. यहां तक की अगर कहीं गलती से उन्होंने करवट ले ली या किसी वजह से वो पलट गए तो तुरंत वहां दूसरी गाड़ी आ जाती है जो उन्हें सीधा कर देती है. बेस्ट एनिमेशन फिल्म का ऑस्कर जीतने वाली इस फिल्म में वैसे तो कचरा फेंकते और कचरा खा रहे समाज के साथ बढ़ते प्रदूषण जैसी कई समस्याओं को सामने लाया गया है लेकिन जिस तरह इसमें बच्चों में बढ़ते मोटापे को दिखाया गया है वो आज सही सिद्ध होता दिखाई दे रहा है.
लगातार काउच पोटेटो (आलसी टट्टू) की श्रेणी में जाते जा रहे बच्चों को लेकर हाल ही में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक 2025 तक भारत में मोटापे से पीड़ित बच्चों की संख्या 1.7 करोड़ तक पहुंच जाएगी. द न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में छपी एक और रिपोर्ट कहती है कि चीन के बाद भारत में मोटापे से ग्रसित बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है. इन बच्चों की संख्या 1 करोड़ 40 लाख से भी ज्यादा है.
बच्चों में आ रही इस शिकायत को लेकर हम अक्सर जंक फूड और बढ़ते गैजेट के इस्तेमाल पर दोष लगाते हैं. लेकिन इस बीच हम भूल जाते हैं की हम खुद कितना अपने बच्चों को खेल कूद के लिए बढ़ावा देते हैं. व्यस्त जीवन शैली और बढ़ते एकल परिवार में सबसे बड़ी समस्या बच्चों को मिलने वाले समय की कमी है. मौजूदा दौर में हम लाख कोशिश करें बच्चों को नई तकनीक से जुड़ने और जंक फूड खाने से पूरी तरह नहीं रोका जा सकता. और शायद हमें पूरी तरह रोकना भी नहीं चाहिए क्योंकि वक्त के साथ तालमेल बैठाना जीवन जीने का सबसे आवश्यक तत्व है. इन दिनों या तो हम बच्चों के लगातार मोबाइल या किसी दूसरे गैजेट से चिपके रहने को लेकर चिंता ज़ाहिर कर रहे हैं या उनके खान-पान के रवैये को लेकर परेशान हैं. लेकिन इस बीच हम ये भूल जाते हैं कि रोज़ हम अपनी सुविधा के लिए ही बच्चों को इन चीज़ों में मसरूफ रखते हैं. ऐसा नहीं है कि पूरी तरह दोष माता-पिता का ही होता है, आखिर शहरी जीवन के साथ तालमेल बैठाते-बैठाते वो खुद भी इतने पज़ल्ड हो चुके होते हैं कि उन्हें लगता है कि कुछ देर वह शांति से रह सकें. लेकिन फिर सवाल यह उठता है कि आखिर इसका समाधान क्या है.
दरअसल निदान उस संतुलन में है जो हमने जिंदगी के साथ बैठाना छोड़ दिया है. बच्चा अगर किसी गैजेट के साथ खेलना चाहता है तो खेले क्योंकि तकनीक के साथ तालमेल भी उसे कुछ सिखाएगा ही. लेकिन साथ में वो थोड़ी देर अगर पार्क में दौड़ लगा ले तो जंक फूड भी बुरा नहीं है. जिस तरह चारों तरफ बच्चों पर खेलने से ज्यादा व्यस्त रहने का दबाव बढ़ रहा है, वो चर्बी के रूप में शरीर में दिखेगा ही. अगर हम अपने स्कूल के वक्त को देखें तो कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं. पहले स्कूलों में बच्चा मार्च या बहुत हुआ तो मध्य अप्रैल तक अपनी सालाना परीक्षाओं से फ्री हो जाता था, फिर उसके पास पूरे ढाई से तीन महीने होते थे जिसमें वो जी भर कर खेलता था. चाहे लू भरे दिन हों या चिपचिपाती शाम हो, बच्चे तल्लीनता के साथ पसीना बहाते थे और कभी डिहाइड्रेशन का शिकार भी नहीं होते थे. बस ज्यादा से ज्यादा कुछ होता था तो घर में डांट पड़ती थी जिसे बच्चा अपने माथे पर बहते पसीने के साथ अपनी शर्ट की बाजू से पोंछ लेता था और फिर खेलने में जुट जाता था.
अब दुकान बनते स्कूलों में अप्रैल में स्कूल खुलेगा फिर बंद होगा, फिर खुलेगा. साथ में बच्चों को इतना काम करने को दे दिया जाता है जो उन्हें छुट्टियों में भी मानसिक तनाव ही देता है. अहम बात ये है कि इस तरह का होमवर्क अक्सर बच्चों के अभिभावक ही पूरा कर रहे होते हैं. बस बच्चे को तनाव रहता है कि उसे अपना होमवर्क पूरा करना है.
अब वक्त आ गया है कि राइट टू एज्यूकेशन के साथ राइट टू प्ले पर भी बातचीत की जाए. जिसमें बच्चों के रोज़ाना खेलने को अनिवार्य किया जाए, सबसे ज़रूरी बात यह हो कि यहां खेलने से मतलब सिर्फ खेलना ही हो जहां बच्चा अपनी मर्जी का खेल खेल सकें. अगर उसे उछलना कूदना अच्छा लगता है तो वो सिर्फ उछले-कूदे, उसे मिट्टी में खेलना पसंद है तो वो वही करे. ज़रूरी है कि हम बच्चों की हर गतिविधि को एक प्रतियोगी की दृष्टि से देखना छोड़ें. जानकारों का तो यह भी कहना है कि बच्चों को उनके शुरुआती छह साल अगर कलम न पकड़ा कर घर के सामान पकड़ाए जाएं तो वह ज्यादा बेहतर विकास करते हैं.
कुछ साल पहले केरेला टूरिज़्म का एक विज्ञापन आया था जो हर साल मॉनसून के आते ही दिखाया जाता है. इसमें एक बच्चे को दिखाया जाता है जो दिन-रात गैजेटों में उलझा रहता है, एक दिन वह अपने मम्मी-पापा के साथ किसी लॉबी में बैठा हुआ एक मैगेज़ीन को पलट रहा होता है जिसमें एक हाथी की तस्वीर बनी हुई है. बच्चे को मोबाइल फोन की इतनी आदत पड़ चुकी है कि मैगेज़ीन में छपी इस तस्वीर को भी वह अपनी उंगली और अंगूठे को फैला कर बड़ा करने की कोशिश कर रहा होता है. माता-पिता को बात समझ में आती है और वे बच्चे को असली हाथी दिखाने ले जाते है. यह विज्ञापन उसी संतुलन की तरफ ही इशारा करता है जिसे हमें समझना ज़रूरी है. बच्चों को गैजेट दिए जाएं लेकिन अपनी सहूलियत के लिए नहीं उसकी सुविधा और कुछ सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ाने के लिए.
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)