यूपी के राजनीति ने आज से ठीक एक वर्ष पूर्व 10 अक्टूबर को एक ऐसा नेता को खोया था. जो राजनीति का आदी था. अपने मृत्यु के 2 दशक पहले से नेताजी यूपी के राजनीति के धूरी बन चुके थे. मुलायम सिंह यादव में एक कम्पलीट राजनेता दिखता था. मुलायम सिंह को पास से जानने वाले लोग बताते हैं कि नेताजी राजनीति के वह मझे हुए खिलाड़ी थे. जिसे यह पता होता था. कब क्या फैसला लेना है. नेता जी के फैसले का एक नमूना हम साल 1993 के कल्याण सिंह के इस्तीफे के बाद हुए चुनाव में ही हम लोगों ने देखा था. मुलायम सिंह गठबंधन धर्म को निभाना जानते थे. क्योकिं उन्होने संघर्ष करके पार्टी बनाई थी. नेताजी से विरासत में अखिलेश भले ही सपा पाए हो लेकिन पार्टी को आज भी मुलायम का ना होना गाहे बेगाहे खल ही जाता है. राजनीति में धैर्य होना चाहिए यह बात मुलायम सिंह से सिखना भूल गये अखिलेश, जब से अखिलेश ने पार्टी की बागडोर अपने हाथ में ली है. तब से कई प्रयोग कर चुके लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी.
हर चुनाव के परिणाम के बाद गठबंधन टूट जाता है. अब 2022 के चुनाव को ही देख लिजिए अखिलेश राजभर के वोट बैंक को ट्रासफर नहीं करा पाए. 2022 के ही चुनाव में चंद्रशेखर रावण को साध नहीं पाए. राजनीतिक जानकार कहते है कि अखिलेश के अंदर धैर्य नहीं है. और राजनीति में धैर्य की बहुत जरुरत होती है. पार्टी के ही एक वरिष्ट नेता बताते है कि अखिलेश और  कार्यकर्ताओं के बीच अब बैरियर है. नेताजी के समय कार्यकर्ता अपनी बात अपने नेता तक पहुंचाते थे. अब थोड़ी दिक्कत होती है.


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मुलायम के आगे सभी फिके 
आजादी के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुलायम सिंह यादव हमेशा एक अलग लाइन खिचते हुए दिखाई देते थे. वे पिछड़ो के आकांक्षाओं के धूरी बन चुके थे. मुलायम सिंह को राजनीतिक समझ में इतनी परिपक्वता थी कि वह जब भी कोई समीकरण बनाते थे. बड़े से बड़े धुरंधर उसमे मात खा जाते थे. इसके उदाहरण के तौर पर आप उस समय जनता पार्टी से तोड़ और बहुजन पार्टी से जोड़ का इस बात का लोहा मनवाती है कि मुलायम सिंह राजनीति के बड़े माहिर खिलाड़ी थे. 


जब चरखा दांव से दिया मंडल कमंल को मात 
मुलायम सिंह राजनीति के उस नस को बखूबी पकड़ना जानते थे. जो विपक्षी पार्टी की सबसे कमजोर नस हुआ करती थी. राजनीतिक गलियारे में मुलायम का चरखा दांव बहुत फेमस है. बात 1993 की है. जब मुलायम सिंह ने कांशीराम की पार्टी बसपा से गठबंधन किया और उस राम लहर में भी यूपी में अपनी सरकार बनाने में कामयाब रहें. बहुत ही फेमस नारा दिया 'मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गये जयश्रीराम" उस समय से ही मुलायम सिंह यादव यूपी के राजनीति के धूरी बन गये थे.


लोहिया के आंदोलन में पहली दफा जेल गये
इटावा के सैफई में जन्मे मुलायम सिंह यादव की शुरुआती पढ़ाई इसी जिले में हुई. मुलायम छात्र जीवन से ही राजनीति में बहुत सक्रिय थे. मुलायम इटावा के केके कॉलेज के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे. राजनीतिक जानकार बताते है की मुलायम सिंह मात्र 14 साल के उम्र में ही लोहिया के आंदोलन में आए और उनके ( लोहिया) संपर्क में भी सिंचाई शुल्क के बढ़ोतरी के आंदोलन में पहली बार मुलायम सिंह यादव जेल गये थे.


अर्जुन सिंह भदौरिया ने सिखाया राजनीति का ककहरा
इटावा के मशहूर समाजवादी नेता अर्जुन सिंह भदौरिया ने उन्हें समाजवाद का पूरा ककहरा सिखाया था. 1967 में अपने गुरु की मौत के बाद पहली बार उपचुनाव में चुनाव जीत विधायक बने और फिर क्या उसके बाद मुलायम सिंह आठ बार जसवंत नगर से विधायक बने बाद में मुलायम सिंह यह सीट अपने छोटे भाई शिवपाल को दे दी.


कार्यकर्ता के लिए जान छिड़कते थे मुलायम
मुलायम सिंह अपने कार्यकर्ताओं के संघर्षों का बहुत सम्मान करते थे. एक पुराने समाजवादी बताते है कि नेताजी के कार्यकर्ता अगर विपक्ष में रहने के दौरान कोई भी कार्यकर्ता अगर लाठी खाता था, तो मुलायम सिंह उसका नाम अपने डायरी में लिखते थे. ताकि समय आने पर उसके संघर्ष का उसे ईनाम दिया जा सकें.


2012 के बाद अखिलेश को सौंप दी बागडोर 
मुलायम सिंह यादव अपने जीवन काल में तीन बार यूपी के मुख्यमंत्री रहे. मुलायम सिंह अपने राजनीतिक जीवन में हमेशा किसी न किसी सदन के सदस्य रहें मुलायम सिंह 10 बार विधायक और 7 बार सांसद सदस्य चुने गये थे. साल 2012 में जब नेता जी कि पार्टी सपा को यूपी में पूर्ण बहुमत मिला ,तो नेताजी नेबागडोर अपने बेटे अखिलेश को सौप दी.  अखिलेश ने न सिर्फ सरकार बनाई बल्कि जल्द ही पार्टी पर अपनी पकड़ भी मजबूत कर ली .अपने कार्यकाल के आखिरी दौर में अखिलेश ने पार्टी को विभाजित कर दिया और खुद पार्टी के अध्यक्ष बन गये. हालांकि मुलायम सिंह अपने अंतिम समय में पूरे परिवार को जोड़ने में कामयाब रहे.