2014 के लोकसभा चुनाव में चौधरी अजित सिंह का गढ़ माने जाने वाले कैराना में 'मोदी लहर' की सुनामी में रालोद(RLD) का प्रत्‍याशी 50 हजार वोट पाने को तरस गया. उस चुनाव में पार्टी का खाता भी नहीं खुला. उसके बाद 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी की लहर के कारण अजित सिंह की पार्टी रालोद को पूरे सूबे में महज एक प्रतिशत वोट मिला और महज एक विधानसभा सीट पर कामयाबी मिली. वह एमएलए भी बाद में पाला बदलकर बीजेपी में चला गया. अब कैराना लोकसभा उपचुनाव में रालोद प्रत्‍याशी तबस्‍सुम हसन की बड़ी बढ़त बताती है कि अजित सिंह एक बार फिर सियासी बियाबान से निकलकर मुख्‍यधारा में लौटने की दस्‍तक दे रहे हैं. यदि यह बढ़त जीत में बदलती है तो रालोद भी विपक्ष के साथ हाथ मिलाकर 2019 के लोकसभा चुनावों में विपक्ष के साथ राजनीतिक सौदेबाजी की स्थिति में लौटेगा.


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79 साल की उम्र में अजित सिंह के लिए ये लड़ाई प्रतिष्‍ठा के साथ राजनीतिक अस्तित्‍व बचाए रखने की भी थी. अजित सिंह इस बात को बखूबी जानते थे, इसलिए बेटे जयंत चौधरी के साथ मिलकर उन्‍होंने बिना कोई चांस गंवाए इस उपचुनाव में जमकर पसीना बहाया. हालांकि पहले यह भी कहा गया कि इस सीट से जयंत चौधरी को प्रत्‍याशी बनाया जाएगा लेकिन सपा के साथ बातचीत के क्रम में यह विचार पनप नहीं सका. नतीजतन तबस्‍सुम हसन के नाम पर सहमति बनी. अब उसी का नतीजा दिख रहा है कि तबस्‍सुम हसन, बीजेपी प्रत्‍याशी मृगांका सिंह का पछाड़कर 42 हजार से भी अधिक वोटों के साथ आगे चल रही हैं. इतने बड़े अंतर को पाटना बीजेपी के लिए अब आसान नहीं दिखता.


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रालोद
राष्‍ट्रीय लोकदल का जनाधार मूल रूप से जाट-मुस्लिम वोटबैंक रहा है. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद ये वोटबैंक एक-दूसरे के सामने खड़ा हो गया. नतीजा 2014 के लोकसभा चुनाव में कैराना से गुर्जर नेता हुकुम सिंह पांच लाख से अधिक वोटों से जीते. उससे सबक लेते हुए इस बार बीजेपी को रोकने के लिए सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस ने केवल एक ही प्रत्‍याशी पर दांव लगाया. वोटों का ध्रुवीकरण नहीं हुआ और उसका फायदा रालोद प्रत्‍याशी तबस्‍सुम हसन को मिला.


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जातिगत समीकरण
जातिगत समीकरण के लिहाज से यदि देखा जाए तो कैराना में 16 लाख वोटरों में सर्वाधिक 5 लाख मुस्लिम वोटर हैं. उसके बाद दलित वोटरों की संख्‍या दो लाख से अधिक है. इसके साथ ही प्रभावशाली जाट और गुर्जर जाति के बराबर यानी सवा लाख वोटर हैं. अन्‍य पिछड़ी जातियों के करीब तीन लाख वोटर हैं. सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस ने विपक्षी एकजुटता दिखाते हुए तबस्‍सुम हसन को अपना समर्थन दिया है.


किसके खाते में कितनी बार?
कैराना लोकसभा सीट पिछले कई साल से अलग-अलग राजनीतिक दलों के खाते में जाती रही है. वर्ष 1996 में सपा, 1998 में बीजेपी, 1999 और 2004 में रालोद, 2009 में बसपा और 2014 में बीजेपी का इस पर कब्जा रहा.