लखनऊ: जिस 'सोशल इंजीनियरिंग' के फार्मूले का इस्तेमाल करके कभी बीएसपी अध्यक्ष मायावती ने उत्तर प्रदेश में 5 वर्ष सत्ता का सुख भोगा था, एक बार फिर से वो उसी पर दांव लगा रही हैं. तभी तो दलित समाज के हितों की राजनीति करने वाली मायावती ने अपनी पार्टी के कुछ अहम पदों की जिम्मेदारी सवर्ण नेताओं को सौंपने का ऐलान किया है. उन्होंने पार्टी की भाईचारा समितियों को भंग कर दिया है और इनके पदाधिकारियों को मूल संगठन में जगह दी है. 


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BSP पर लग रहा था सवर्णों की उपेक्षा का आरोप 
बहुजन समाज पार्टी पर ये आरोप लग रहा था कि BSP अपने मूल संगठन में अनुसूचित जातियों को छोड़कर किसी भी दूसरे समाज के नेताओं को बड़ी जिम्मेदारी नहीं देती है. दूसरे जातियों के बड़े नेताओं को भी भाईचारा समितियों में खपाकर सिर्फ चुनावी फायदा लिया जाता है. ऐसे आरोपों को खारिज करते हुए मायावती ने पुराने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले को झाड़ पोंछकर फिर पेश किया है. 
भाईचारा कमेटियों में शामिल ब्राह्मण, ठाकुर, पिछड़े और मुस्लिम नेताओं को मंडल और सेक्टर स्तर के मूल संगठन में समायोजित कर दिया गया है. माना जा रहा है कि इस बार विधानसभा के चुनाव में BSP एक बार फिर बहुजन नहीं सर्वजन के नारे के साथ उतरेगी. BSP ने सवर्ण नेताओं को पार्टी का पदाधिकारी बनाकर ये साफ करने की कोशिश की है कि पार्टी किसी एक जाति की न होकर सभी को समान प्रतिनिधित्व देने वाली है. 


BSP का फोकस ब्राह्मण वोट बैंक पर 
बहुजन समाजवादी पार्टी का मुख्य फोकस ब्राह्मण समाज पर है.  लिहाजा पूर्व शिक्षा मंत्री रंगनाथ मिश्रा को मिर्जापुर मंडल और पूर्व MLC ओपी त्रिपाठी को देवीपाटन मंडल के चीफ एडिटर की जिम्मेदारी दी गई है. खबर ये भी है कि अरुण पाठक को आजमगढ़ मंडल और विजेंद्र पांडे को गोरखपुर मंडल की जिम्मेदारी दी गई है. इसी तरह बाकी जोन और मंडल में भी उस इलाके के प्रभावशाली सवर्ण नेताओं को जिम्मेदारी देने की कार्यवाही जारी है.
इन नेताओं की जिम्मेदारी ना सिर्फ ब्राह्मण समाज को बल्कि अपर कास्ट को भी BSP से जोड़ने की होगी. पिछले चुनावों में मुंह की खा चुकी BSP इस बार कुछ कमाल कर दिखाना चाहती है. ऐसे में मायावती को लगता है कि ब्राह्मण समाज उनके लिए सत्ता की चाभी बन सकता है.


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2007 में अपनाया 'सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला'
काफी मंथन के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती इस निष्कर्ष पर पहुंची हैं कि चुनावों में जीत का सही फार्मूला ब्राह्मण-मुस्लिम-दलित (बीएमडी) ही हो सकता है. क्योंकि इसी प्रयोग से वह 2007 में मुख्यमंत्री बनी थी. उस वक्त सतीश उपाध्याय ने मायावती को ये फॉर्मूला सुझाया था. चूंकि यूपी में ओबीसी SP का वोट बैंक माना जाता है तो दलित बसपा का. ऐसे में कई बार ब्राह्मण वोट डिसाइडिंग फैक्टर हो जाते हैं, तो मायावती की नजर इसी निर्णायक वोट बैंक पर है. 


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