उत्तरकाशी: ...जहां रोज मौत को चुनौती देते हुए आगे बढ़ती है `जिंदगी`
चामकोट गांव के बच्चे हो या बुजुर्ग या फिर महिलाएं सभी को नदी पार करने के लिए खुद ही ट्रॉली को खींचकर अपने पास लाना होता है और फिर अपने बाजुओं के दम पर रस्सी कों खिंचते हुए दूसरी तरफ जाना पड़ता है.
देहरादून: क्या बच्चे, क्या बुजुर्ग हर रोज जिंदगी को दांव पर लगाना इनके दिनचर्या में शामिल हो चुका है, सर्दी, गर्मी या फिर मूसलाधार बारिश भगीरथी को तो पार करना ही करना है. वह भी एक ट्रॉली के सहारे जहां न इस पार न उस पार कोई सुरक्षा कर्मी है और नहीं कोई गोताखोर. कोई अनहोनी हो जाए तो बचाने वाला कोई नहीं. ये सच्चाई उत्तराखंड के जनपद उत्तरकाशी के जिला मुख्यालय से महज सात किलोमीटर दूर चामकोट गावं की है
ट्रॉली एकमात्र जरिया
चामकोट गांव के बच्चे हो या बुजुर्ग या फिर महिलाएं सभी को नदी पार करने के लिए खुद ही ट्रॉली को खींचकर अपने पास लाना होता है और फिर अपने बाजुओं के दम पर रस्सी कों खिंचते हुए दूसरी तरफ जाना पड़ता है, जो पढ़ने के लिए रोज इस उफनती नदी को दो बार पार करते है. इस आधुनिक युग में जहां लोग रफ्तार से दौड़ती जिंदगी पर सवार हैं, तो दूसरी ओर उत्तरकाशी के चामकोट गांव के निवासी सालों से पुराने युग में ही जी रहे हैं.
2013 से झेल रहे दुश्वारी
दरअसल, साल 2013 की भीषण आपदा में जनपद उत्तरकाशी के इस गांव में बड़ा भूस्खलन हुआ, जिसके बाद ये गांव सड़क मार्ग से कट गया. तब से आज 6 सालों का समय बीत चुका है, लेकिन चामकोट के लोगों को एक अदद सड़क भी नसीब नहीं हो पाई. सरकार कांग्रेस की रही हो या भाजपा की. सड़क पास तो हुई, लेकिन बनाने की जहमत नहीं उठाई गई. शादी हो या बारात, गम हो या खुशी इस गांव के लोगों को जिला मुख्यालय से जोड़ने का एक मात्र जरिया से ट्रॉली ही है. बरसात के समय में भगीरथी के किनारे पर खड़े होकर नदी की दिल दहलाने वाली आवाज वैसे ही भय पैदा करती है फिर इसके इस पार से उस पार जाने में क्या स्थिति होगी खुद कल्पना कर लीजिए.
कम हो गई गांव की आबादी
2013 से पहले चामकोट में रहने वाले लोगों की संख्या पांच सौ के करीब थी, जो सड़क मार्ग कटने के बाद ढाई सौ के आस पास ही रह गई है. कभी बच्चों की शिक्षा की वजह से तो कभी बेहतर चिकित्सा व्यवस्था के लिए लोगों ने धीरे-धारे गांव छोड़कर उत्तरकाशी की तरफ रुख कर लिया. किसी ने किराए पर कमरा लिया तो किसी ने रिश्तेदारों के यहां ठिकाना बना लिया.
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कई बार किया धरने प्रदर्शन
गांववालों की चुनौतियां आज भी बदस्तूर बरकरार हैं. दुश्वारी कब खत्म होगी ये कोई नहीं जानता. गांव के लोग न जाने कितनी बार कभी जिला प्रशासन तो कभी स्थानीय नेताओं के चक्कर काट चुके हैं. लेकिन किसी के कानों में जूं नहीं रेंगती. कई बार धरना-प्रदर्शन भी हुआ, लेकिन समस्या आज भी जस की तस बनी हुई है.