Dehradun News/मोo मुजम्मिल: दिवाली के एक महीने बाद जौनसार बावर क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा बेहद खास है. यह पर्व यहां की संस्कृति, परंपराओं और सामूहिकता को उजागर करता है. पांच दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में पारंपरिक पकवान चियूड़ा तैयार किया जाता है, जिसे महिलाएं सामूहिक रूप से मेहनत से बनाती हैं.


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इसकी क्या हैं मान्यता?
रात के समय गांव के लोग पंचायती आंगन में इकट्ठा होकर लोकगीतों और सांस्कृतिक नृत्य करते हैं. इस पर्व के पीछे दो मान्यताएं हैं, पहली यह कि प्रभु श्री राम के अयोध्या लौटने की खबर इस क्षेत्र में एक महीने बाद पहुंची, और दूसरी यह कि इस समय खेती के काम खत्म होने के बाद लोग उत्सव मनाते हैं।


इस दिवाली में पटाखों का इस्तेमाल नहीं होता 
बूढ़ी दिवाली को इको-फ्रेंडली दिवाली भी कहा जाता है क्योंकि इसमें पटाखों का उपयोग नहीं होता. रात में सामूहिक रूप से विमल और चीड़ की लकड़ी की मशालें (होलीयात) जलाई जाती हैं, जिनकी रोशनी उत्सव में चार चांद लगा देती है.


इसके अलावा, प्रसाद के रूप में अखरोट ग्रामीणों के बीच उछाले जाते हैं, जिन्हें लोग खुशी-खुशी लपकते हैं. लोक नृत्य के बीच लकड़ी के बने हाथी का प्रदर्शन भी इस उत्सव का खास आकर्षण है. बूढ़ी ढ़ी दिवाली आज देश और दुनिया के लिए पर्यावरण संरक्षण और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने का संदेश देने वाली मिसाल बन चुकी है.


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