कौन थे कारगिल के हीरो कैप्टन मनोज पांडेय, दुश्मन के तीन बंकर किए नेस्तनाबूद, आखिरी बंकर में सिर से 4 गोलियां आर-पार हो गईं
Captain Manoj Pandey : कारगिल युद्ध की बात हो और एक नाम जुबान पर न आए ऐसा हो ही नहीं सकता. कैप्टन मनोज कुमार पांडे ने साहसपूर्वक कई हमले कर दुश्मन के चार ठिकानों पर बम की तरह बरसे.
Captain Manoj Pandey : कल यानी 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस (Kargil Vijay Diwas) के रूप में मनाया जाएगा. 1999 के कारगिल युद्ध में भारतीय वीर सपूतों ने पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़कर बाहर निकाल दिया था. कारगिल युद्ध की बात हो और एक नाम जुबान पर न आए ऐसा हो ही नहीं सकता. कैप्टन मनोज कुमार पांडे ने साहसपूर्वक कई हमले कर दुश्मन के चार ठिकानों पर बम की तरह बरसे. नजीता रहा कि हम कारगिल पर विजय का पताका लहरा पाए. तो आइये जानते हैं कहानी कैप्टन मनोज पांडे की.
कौन थे कैप्टन मनोज कुमार पांडे
कैप्टन मनोज पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को यूपी के सीतापुर के रूद्रा गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम गोपी चंद पांडे और माता का नाम मोहिनी पांडे था. कैप्टन मनोज पांडेय की शुरुआती शिक्षा लखनऊ के सैनिक स्कूल में हुई थी. बचपन से ही मनोज कुमार पांडे सेना में जाना चाहते थे. शुरुआती पढ़ाई के बाद वह राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) खड़कवासला में शामिल हो गए.
सेना में पहली पोस्टिंग
इसके बाद मनोज पांडे ट्रेनिंग के लिए इंडियन मिलिट्री अकादमी (IMA) देहरादून चले गए. यहां उनकी नियुक्ति 11 गोरखा राइफल्स (1/11 जीआर) की पहली बटालियन में हो गई. कैप्टन मनोज कुमार पांडे मुक्केबाजी और बॉडी बिल्डिंग का शौक रखते थे. यही वजह रही कि उन्हें सबसे प्रसिद्ध बटालियन में शामिल किया गया. यह बटालियन अपनी वीरता के लिए फेमस है.
कारगिल पर तैनात थी 11 गोरखा राइफल्स
बात 1999 की है, उस समय 11 गोरखा राइफल्स (1/11 जीआर) कारगिल पर तैनात थी. मई के महीने में पाकिस्तानी सेना ने घुसपैठ करते हुए भारतीय सेना की चौकियों पर चोरी-छिपे कब्जा कर लिया था. तत्कालीन सरकार को इसकी जानकारी होने पर पाकिस्तानी घुसपैठियों को बाहर निकालने का आदेश दे दिया. इसके बाद भारतीय वीर सपूतों ने मिशन विजय शुरू कर दिया.
60 दिनों तक चली थी लड़ाई
60 दिनों तक चले इस कारगिल युद्ध में भारतीय वीर सपूतों ने पाकिस्तनी घुसपैठियों को खदेड़कर बाहर निकाल दिया. तब से 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है. बताया जाता है कि खालूबार रिज लाइन वह क्षेत्र था, जहां पाकिस्तानी घुसपैठियों ने कब्जा कर लिया था. 1/11 जीआर को इस क्षेत्र को घुसपैठियों को बाहर निकालने की जिम्मेदारी दी गई.
पहलवान चौकी के लिए रवाना हुए
कैप्टन मनोज कुमार पांडेय इस बटालियन के नंबर 5 प्लाटून कमांडर थे. दो-तीन जुलाई 1999 की रात कैप्टन मनोज कुमार पांडे खालूबार के रास्ते 19700 फीट की ऊंचाई पर स्थित पहलवान चौकी के लिए रवाना हो गए. इस पर पाकिस्तानी घुसपैठियों ने गोलीबारी शुरू कर दी. भारी गोलाबारी के बीच कैप्टन मनोज कुमार पांडे अपनी पूरी बटालियन को एक सुरक्षित स्थान तक ले गए.
चार बंकरों से कब्जा हटाया
इसके बाद मनोज कुमार पांडे ने दुश्मन के दो बंकरों को साफ कर उस पर कब्जा कर लिया. तीसरे बंकर को दुश्मनों से साफ करने के दौरान गोलियों की बौछार उनके कंधे और पैरों पर लगी. चोट की बिना परवाह किए कैप्टन मनोज पांडे बहादुरी से दुश्मनों का सामना करते रहे. दुश्मनों के चार बंकर खाली कर 24 साल की उम्र में वह शहीद हो गए.
यूपी सैनिक स्कूल का नाम बदला
उनकी वीरता को देखते हुए उत्तर प्रदेश सैनिक स्कूल लखनऊ का नाम बदलकर कैप्टन मनोज कुमार पांडे यूपी सैनिक स्कूल रख दिया गया. मनोज कुमार के पिता गोपी चंद पांडे कारोबारी थे, वहीं, एक भाई मनमोहन पांडे थे. मनोज कुमार को परमवीर चक्र भी प्रदान किया गया. परमवीर चक्र विजेताओं पर बहुचर्चित किताब 'द ब्रेव' लिखने वाली रचना बिष्ट के मुताबिक, 1997 में जब लेफ्टिनेंट मनोज पांडे 1/11 गोरखा राइफल्स में शामिल हुए तो दशहरे की पूजा के दौरान उनसे अपनी बहादुरी सिद्ध करने के लिए कहा गया.
युद्ध से पहले ऐसे दिया था बहादुरी का परिचय
मनोज पांडे को बलि के लिए एक बकरे का सिर काटने के लिए कहा गया. रचना बिष्ट बताती हैं कि कुछ देर के लिए वह बिचलित हो गए, लेकिन बाद में फरसे से उन्होंने बकरे का सिर अलग कर दिया था. बकरे का खून उनके मुंह पर लग गया था. बाद में वह अपने कमरे में घंटों मुंह धुलते रहे. वह पहला मौका था जब उन्होंने जानबूझकर किसी की हत्या का अपराध बोध हुआ था. मनोज पांडे के बारे में कहा जाता है वह शाकाहारी थे और कभी शराब को हाथ नहीं लगाया.
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