लखनऊ: "मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैं" महज एक कहावत नहीं है. सोचिए जब यह लाइन लिखी जा रही होगी, तो लेखक के दिमाग में लखनऊ की किस गली या चौराहे की छवि छपी होगी? शायद वह चौक के गोल दरवाजे के पास खड़ा मलाई मक्खन का नजारा होगा, या अमीनाबाद की रोनक. हो सकता है लेखक हजरतगंज में विधान भवन रोड की शान और चमक के बारे में सोच रहा हो. शाम-ए-अवध का वह नजारा भी किसी के उदास मूड को खुशनुमा करने के लिए काफी है.


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अब दिमाग में जो भी तस्वीर आई हो, उसके होंठों पर मुस्कान जरूर आई होगी. हो भी क्यों न... अदब, तहजीब और नफासत से सजे इस शहर में दो दिन भी गुजारेंगे तो आपके जहन में उतर जाएगा लखनऊ. ऐसे ही यहां की नवाबी तहजीब की इबारत सिर्फ इमारतों पर नहीं, बल्कि यहां के चौक-चौराहों पर भी झलकती है. पुराने लखनऊ के ये चौक-चौराहे हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं. 


वक्त के साथ कई चौराहों के नाम भी बदले गए, लेकिन पहचान पुरानी ही है. आइए जानते हैं कुछ ऐसे चौक-चौराहों के बारे में, जिनकी वजह से लखनऊ जाना जाता है...


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1. यूं पड़ा 'कोनेश्वर चौराहे' का नाम
कोनेश्वर चौराहा पुराने लखनऊ के चौक इलाके में पड़ता है और चौक एक मुस्लिम बहुल्य क्षेत्र है. दरअसल, यहां एक कोनेश्वर महादेव मंदिर है, जिसे लोग त्रेता युग का बताते हैं. कहा जाता है कि एक बार कौंडिल्य ऋषि गोमती नदी के किनारे चलते हुए थोड़ी दूर पर उन्होंने एक शिवलिंग की स्थापना की. कुछ समय बाद वहां पर महादेव मंदिर बनाया जाने लगा तो शिवलिंग को मंदिर के बीच में स्थापित किया गया. लेकिन हैरान करने वाली बात यह थी कि हर रात शिवलिंग फिर अपने पुराने स्थान (मंदिर के कोने) पर ही पहुंच जाता था. ऐसा करीब 4 रातों तक चला. इसके बाद लोगों ने इसे प्रभु की इच्छा मानते हुए भगवान शिव को कोने में ही स्थापित कर दिया. जिसके बाद से इसे कोनेश्वर महादेव मंदिर कहा जाने लगा. 


वहीं, एक किवदंति यह भी है कि वशिष्ठ मुनि के कहने पर लक्ष्मण जी सीता मां को वन में छोड़कर वापस नहीं जा पा रहे थे. ऐसे में उन्होंने अवध नगरी में कौटिल्य मुनि के आश्रम में कोनेश्वर महादेव की आराधना की थी और यह वही मंदिर है. 


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2. हजरतगंज का नाता है चाइना बाजार से
साल 1827-37 के बीच में अवध के नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने हजरतगंज की नींव रखी थी. बताया जाता है कि यह चौराहा चीनी (चीन का) बाजार और कप्तान बाजार की तर्ज पर बना था. उस दौरान चीन, बेल्जियम, जापान और कई देशों से सामान आते थे. हालांकि, कुछ समय बाद नवाब नसीरुद्दीन (जिन्हें उनके चाहने वाले प्यार से 'हजरत' बुलाते थे) के नाम पर इस चौराहे का नामकरण हुआ.


1857 के संग्राम के बाद अंग्रेजों ने हजरतगंज का हूलिया ही बदल दिया. उन्होंने लंदन की 'क्वीन स्ट्रीट' की तरह हजरतगंज को भी विकसित किया. नवाब, अंग्रेज और फिर आजाद भारत, हजरतगंज को हर दौर में प्यार से ही रखा गया. इसकी रोनक भी दिन-ब-दिन बढ़ती ही चली गई. 


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3. कैसरबाग चौराहे नाम पड़ा 'वाजिद अली शाह' के नाम पर
कैसरबाग चौराहा पुराने लखनऊ में सबसे मशहूर चौराहों में से एक है. इसका निर्माण लखनऊ के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह ने अपनी देखरेख में करवाया था. साल रहा होगा 1847 से 1856 के बीच. बताया जाता है कि यह उनका ड्रीम प्रॉजेक्ट था. यहां पर वाजिद अली शाह ने एक खूबसूरत सा बगीचा बनवाया था, जिसका नाम कैसर बाग रखा था.


कई जगह यह बात भी कही गई है कि नवाब वाजिद अली शाह को 'कैसर' नाम से भी बुलाया जाता था, जिसपर इस चौराहे का नाम रखा गया है. चौराहे के ईस्ट और वेस्ट एंड पर जो दो बड़े दरवाजे बने हैं वह भी नवाब वाजिद अली शाह की ही देन हैं.


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4. आखिरी नवाब की पहली बेगम के नाम पर बना आलमबाग
लखनऊ का आलमबाग चौराहा सबसे व्यस्त चौराहा माना जाता है. नवाब वाजिद अली शाह की पहली बेगम का नाम था आलमआरा, जिनके नाम पर नवाब ने एक कोठी बनवाई थी. यह भी 1847 से 1856 के बीच की ही बात है. यह जो कोठी थी, वह लखौरी ईंटों और चूने से बनवाई गई थी. बदलते वक्त के साथ कोठी में भी बदलाव हुए. और उसी कोठी के नाम पर इलाके और मेन चौराहे का नाम भी आलमबाग पड़ गया. धीरे-धीरे वह चौराहा ही इलाके की पहचान बन गया. 


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5. 'छन्नी'लाल चौराहा से चाय ही याद आएगी
लखनऊ में एक इलाका है महानगर. पुराने समय से ही लोगों को यह क्षेत्र बसने के लिए पसंद था. लिहाजा यहां लाइन से खूब मकान थे. इतिहासकारों के मुताबिक, जब यहां पर रहने वाले लोगों का कोई रिश्तेदार आता था, तो उसे नंबर के हिसाब से घर मकान ढूंढने में बड़ी दिक्कत होती थी. ऐसे में पता बताने वाले लोगों ने 'छन्नीलाल चाय वाले' की दुकान को लैंडमार्क बनाकर रास्ते समझाना शुरू किए. धीरे-धीरे छन्नीलाल इतना फेमस हो गया कि दुकान के नाम से पूरे चौराहे को ही पहचाना जाने लगा. दशकों बाद उसका नाम ही छन्नीलाल चौराहा रख दिया गया.


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