इलाहाबाद: इलाहाबाद विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय में 25 साल से बंद पड़े लॉकर और अलमारी को गुरुवार को काटकर खोला गया. इस लॉकर से प्राचीन खजाना निकला है. इन धरोहरों को देखने के बाद दूसरी अलमारी में सील लगाकर समिति के सामने रख दिया गया है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण दुर्लभ दीनार के वह सिक्के हैं. यूनिवर्सिटी से जुड़े लोगों का मानना है कि इससे पहले 1998 में तत्कालीन पुस्तकालय अध्यक्ष प्रो. मानस मुकुल दास के कार्यकाल के दौरान खुला था. लॉकर में मिले सिक्कों की जांच में जम्मू-कश्मीर के किदाराइट साम्राज्य के निकले है. गुरुवार को लॉकर खुलने के बाद सिक्कों का मुद्राशास्त्र विशेषज्ञ से परीक्षण कराया गया है. आइए डालते हैं एक नजर पूरी खबर पर.


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400-500 ईस्वी के सिक्के
परीक्षण की रिपोर्ट के अनुसार  इस धरोहर में 400-500 ईस्वी के बीच किदाराइट साम्राज्य द्वारा जारी किए गए,  जो उस समय जम्मू और कश्मीर क्षेत्र पर शासन करता था.ये सोने के सिक्के हैं. सिक्के को हथौड़े से कूटकर बनाया गया था. ये गोल असमान आकार में है. सोने से निर्मित इस सिक्के की रचना "डिबेस्ड" मानी जाती है, जिसका अर्थ है कि इसमें शुद्ध सोने की मात्रा कम है. इसका वजन 7.34 ग्राम है और इसका व्यास 21 मिमी है. अभी ये सिक्का चलन में नहीं है. सिक्के पर एक राजा का फोटो है जो खड़ी मुद्रा में आहुति दे रहा है. राजा के हाथ के नीचे ब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ है, जिसका अनुवाद "किदारा" होता है, जो किदाराइट साम्राज्य के शासक का संदर्भ से है.


दुर्लभ दीनार के सिक्के
इसमें सबसे महत्वपूर्ण दुर्लभ दीनार के वह सिक्के हैं जो जम्मू-कश्मीर राजवंश के इतिहास पर रोशनी डाल रहे हैं.  इसके अलावा 500 प्राचीन सिक्के पर्शियन भाषा में शाही फरमान और ताम्रपत्र पर अंकित पाली भाषा में विनय पिटक मिले है.विनय पिटक बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए अनुशासन नियमों का संग्रह है।


आखिरी बार साल 1998 में बंद की गई थी पुरातात्विक धरोहरें
एक दशक से भी ज्यादा समय निकल जाने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मौजूद इस पुरातात्विक धरोहरों के लॉकर को खोला गया है.  1998 में एक समिति ने लॉकर और अलमारी में बंद कर दिया था. 


कई सिक्के 2,000 साल पुराने 
केंद्रीय पुस्तकालय के लॉकर में प्राचीन सिक्के मिले हैं जिनमें से कई सिक्के 2,000 साल पुराने हैं. रिपोर्ट के मुताबिक इनका संबंध मौर्य, कुषाण, और गुप्तकाल जैसी प्राचीन सभ्यताओं से है.  वहीं, पर्शियन भाषा में लिखा हुआ शाही फरमान 16वीं शताब्दी का है.


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