दिवाली के एक माह बाद उत्तराखण्ड के ऊपरी इलाके में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. इन इलाकों में आज भी सदियों पुरानी परंपरा का निर्वहन हो रहा है. यहां के अधिकांश गांवो में बूढ़ी दिवाली बहुत हर्षो उल्लास के साथ मनाई जाती है. बूढ़ी दिवाली के दिन यहां रात में मशाल जलाई जाती है. पहाड़ो के लोगों में ऐसी मान्यता है कि सीताजी इस दिन वनवास पूरा होने बाद घर बहु बनकर आई थी. तब महालक्ष्मी के रूप में अयोध्या में बूढ़ी महिलाओं ने उनका जोरदार स्वागत किया था. 


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क्यो मनाई जाती है बूढ़ी दिवाली 
दिवाली के एक माह के बाद अमावस्या के दिन पहाड़ी घर की सारी बहुएं अपनी बूढ़ी सास की आरती उतारती है. उसके बाद राम और सीता को जयमाला पहनाई जाती है. उसी याद में पहाड़ी क्षेत्र में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. इस दिन रात को मशाल जलाई जाती है. इसे सुबह तक जलाया जाता है. इसे स्थानीय भाषा में 'डाव' कहा जाता है. 


इस दिन दो गांवों के बीच होती है लड़ाई 
गढ़वाल, टिहरी व उत्तरकाशी के इलाके में मशालें व अश्लील जुमलों से भूत पिशाच भगाए जाते हैं. इस दिन अश्लील जुमले कसते हुए ढोल नगाड़ों की थाप पर डांस किया जाता है. बूढ़ी दिवाली के दिन दो गांवो के बीच लड़ाई होती है. दोनों गांवों के लोगों के बीच मशाल से लड़ाई होती है. पहाड़ों में यह जश्न पूरे हफ्तेभर चलती है. स्थानीय लोगों के अनुसार यह उत्सव उनके लिए गर्व का पल होता है. इस दिन वह अपनी गाढ़ी परंपरा का निर्वहन बहुत ही जिम्मेदारीपूर्वक करते हैं.