कौन थे मोहम्मद रफी के उस्ताद अब्दुल वहीद, सहारनपुर में जिसकी शागिर्दी में फकीर से संगीत के शहंशाह बन गए रफी
हिन्दी सिनेमा के श्रेष्ठतम पार्श्व गायकों में से एक मोहम्मद रफी साहब का कल यानी 24 दिसंबर को 100वीं जयंती है. मोहम्मद रफी के सैकड़ों ऐसे गाने हैं जिनकी आवाज कानों तक पहुंच जाए तो लोग गुनगुनाने को मजबूर हो जाते हैं.
मोहम्मद रफी के संगीत के गुरु कौन?
बहुत कम ही लोग जानते हैं कि अपने सुरों से करोड़ों लोगों के दिलों में राज करने वाले मोहम्मद रफी साहब जिस उस्ताद से संगीत की शिक्षा ली वह यूपी के सहारनपुर के रहने वाले थे.
लाहौर से सहारनपुर आए थे
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, सहारनपुर के रहने वाले उस्ताद अब्दुल वहीद खां ने मोहम्मद रफी को संगीत सिखाया. बताया जाता है कि अपने अंतिम समय में अब्दुल वहीद खां भी लाहौर से सहारनपुर आ गए थे.
कई दिग्गज दिए
सहारनपुर के नानौता कस्बे के लुहारी गांव में जन्मे उस्ताद अब्दुल वहीद खां ने कैराना घराने से संगीत सीखी. कहा जाता है कि कैराना घराने ने दुनिया को कई दिग्गज उस्ताद दिए.
कैराना घराने से जुड़े
कैराना घराने से ही अस्ताद अब्दुल वहीद खां के अलावा पंडित भीमसेन जोशी, अब्दुल करीम खां, गंगुबाई हंगल जैसे उस्ताद निकले. उस्ताद अब्दुल वहीद खां भी यहीं से संगीत की शिक्षा ली थी.
कम सुनाई देता था
कहा जाता है कि अब्दुल वहीद खां को कम सुनाई देता था, ऐसे में कुछ लोग उन्हें बहरे वहीद खां भी कहते थे. बताया गया कि अमृतसर के कोटला सुल्तान सिंह में जन्मे मोहम्मद रफी देश के बंटवारे से पहले संगीत सीखने के लिए लाहौर चले गए.
गुलाम अली खां के पास गए
मोहम्मद रफी ने लाहौर में उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के पास गए. हालांकि, वहां रफी साहब ज्यादा दिन नहीं रहे. इसके बाद वह लाहौर में ही उस्ताद अब्दुल वहीद खां के पास गए.
12 साल तक संगीत की शिक्षा
मोहम्मद रफी ने लाहौर में करीब 12 साल तक अब्दुल वहीद खां से संगीत की शिक्षा ली. अब्दुल वहीद खां का ससुराल सहारनपुर में ही था. अंतिम समय में अब्दुल वहीद खां लाहौर से कैराना चले आए थे.
सहारनपुर में दफनाया गया
उस्ताद अब्दुल वहीद खां ने अंतिम सांस सहारनपुर में ली थी. बताया जाता है कि उनका शरीर थाना कुतुबशेर के पीछे बने कब्रिस्तान में दफनाया गया था.
उस्ताद अब्दुल वहीद खां से संगीत की शिक्षा ली
मोहम्मद रफी ने एक साक्षात्कार में कहा है कि वह उस्ताद अब्दुल वहीद खां से संगीत की शिक्षा ली है. साक्षात्कार में बता रहे हैं कि अब्दुल वहीद से पहले उन्होंने बरकत अली से भी संगीत की बारीकियां सीखी.
दस साल की उम्र में
आगे वह बता रहे हैं कि जब वह दस वर्ष के थे तो उनके गांव कोटला सुल्तान सिंह में एक फकीर भिक्षा मांगने आता था. वह फकीर 'खेड़न दे दिन चार नी माई' गीत गाता था.
भाई के सैलून में काम करने गए
बताया गया कि मोहम्मद रफी के बड़े भाई सैलून चलाया करते थे. मोहम्मद रफी की पढ़ाई में मन नहीं लगता था तो उनके पिता ने उन्हें बड़े भाई के साथ सैलून में काम सीखने के लिए भेज दिया था.
साले ने देखी उनकी प्रतिभा
मोहम्मद रफी के साले मोहम्मद हमीद ने उनमें प्रतिभा देखी और उनका उत्साह बढ़ाया. कहा जाता है कि हमीद ने ही रफी साहब की मुलाकात नौशाद अली से करवाई थी.
पहली परफॉर्मेंस
रफी ने पहली बार 13 साल की उम्र में सार्वजनिक परफॉर्मेंस दिया था. उन्होंने केएल सहगल की एक संगीत कार्यक्रम में गाना गाया था.
पहला गाना
मोहम्मद रफ़ी ने अपना पहला गाना एक पंजाबी फ़िल्म गुल बलोच के लिए गाया. इसे वह श्याम सुंदर के निर्देशन में 1944 में गाया था.
जवाहर लाल नेहरू भी कायल थे
मोहम्मद रफी के गानों पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी कायल थे. पूर्व प्रधानमंत्री उन्हें अपने घर पर ही गाना गाने के लिए बुला लिया था.
डिस्क्लेमर
यह सामग्री केवल सामान्य जानकारी प्रदान करती है. zeeupuk इस जानकारी के लिए ज़िम्मेदारी का दावा नहीं करता है.