One Nation One Election: देश में वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर सियासी बहस तेज हो गई है. रामनाथ कोविंद कमेटी की सिफारिशों को मोदी कैबिनेट ने बुधवार को मंजूरी दे दी है. इसका मकसद, लोकसभा, विधानसभा और निकाय चुनाव को एक साथ कराना है. जनसंख्या और सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में अब तक 10 ऐसे मौके बने हैं, जब सूबे में एकसाथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव हुए हैं. जनता ने ज्यादातर बार डबल इंजन की सरकार बनाई है. हालांकि कई ऐसे भी मौके रहे जब जनता नें केंद्र और राज्य की कुर्सी पर अलग दल पर मुहर लगाई.


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कमेटी ने सौंपी रिपोर्ट
दरअसल 'एक देश एक चुनाव' को लेकर पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अगुवाई वाली कमेटी ने रिपोर्ट सौंपी है. जिसमें उत्तर प्रदेश में हुए चुनाव से जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं का विश्लेषण किया है. यूपी में अब तक 18 बार चुनाव हुए. 1961 से 1971 तक तीन बार, 1971 से 1980 तक दो बार और 1991 से 2000 तक तीन बार विधानसभा चुनाव हुए. 1951 से लेकर 1974 तक साथ हुए चुनाव में कांग्रेस दोनों जगह जनता की पहली पसंद बनी. 


यूपी की जनता ने किसका दिया साथ?
इमरजेंसी के बाद 1977 में साथ हुए चुनाव में कांग्रेस उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि केंद्र की भी सत्ता से बाहर हो गई. 1980 में हुए चुनाव में उत्तर प्रदेश और केंद्र में फिर कांग्रेस का हाथ जनता ने थामा. अगले चुनाव में भी कांग्रेस सत्ता में वापसी करने में सफल रही. 1989 में हुए चुनाव में जनता दल की सरकार बनी. 1991 के चुनाव में समीकरण बदले. इस दौरन केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनाने में कामयाब रही तो यूपी में बीजेपी ने परचम लहराया. 1996 में केंद्र और यूपी दोनों जगह गठबंधन सरकार बनीं. इसके बाद के दो चुनाव में एक दल पर जनता ने भरोसा नहीं जताया.


साथ चुनाव कराने में फायदा या नुकसान?
रिपोर्ट में जिक्र किया गया है कि चुनाव अलग-अलग होने पर राज्य की इकोनॉमी पर अपेक्षाकृत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. ग्रोथ रेट से लेकर राजकोषीय घाटे में इसका असर देखने को मिला. रिपोर्ट के मुताबिक साथ चुनाव होने से देश और राज्य की जीडीपी में ज्यादा इजाफा होता है. जबकि अलग-अलग चुनाव कराने से इसमें नुकसान होता है. साथ ही इन्फ्लेशन (मुद्रास्फीति) दर भी अलग-अलग चुनाव की अपेक्षा एकसाथ चुनाव कराने पर कम रहती है.


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