वेदेन्द्र प्रताप शर्मा/आजमगढ़: साल 1857 में देश भर में कई आंदोलन हुए. जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंका था. चिंगारी की पहली लौ यूपी के बलिया के मंगल पांडेय ने जलाई, जिसकी आंच आज़मगढ़ में भी आई. यहां के वीर सपूतों के दम पर ये आंदोलन इतना प्रभावशाली रहा कि आज़मगढ़ 81 दिनों तक स्वतंत्र रहा. 80 साल की उम्र में बिहार प्रांत के आरा के कुंवर सिंह ने अंग्रेजों को आज़मगढ़ तक तक खदेड़ा था.


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उस समय देश में अंग्रेजी हुकूमत का अत्याचार और शोषण चरम पर पहुंच रहा था. बताया गया कि 1837 से 1857 तक लगभग एक लाख एकड़ भूमि को ब्रिटिश हुकूमत ने लगान के नाम पर नीलाम कर दिया था. जिसको लेकर लोगों में भारी असंतोष और नाराजगी थी. अंग्रेजों के अत्याचार से लोग परेशान थे. जिसके बाद विद्रोह की आवाज धीरे-धीरे तेज होने लगी. जब 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा तो आजमगढ़ की क्रांतिकारी धरती भी पीछे नहीं रही. बल्कि बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. 


आजमगढ़ जिले में मुबारकपुर क्षेत्र के ग्राम बम्हौर में रज्जब अली एक जमींदार परिवार में जन्म हुआ था. जिसने क्रांति की इबारत लिखी और आजमगढ़ को वीरता और बहादुरी की नई मिसाल दी. रज्जब अली अन्याय के विरुद्ध अंग्रेजों से मोर्चा ले रहे थे, उन्होंने अंग्रेजों से मोर्चा लेने के लिए लगभग 4 हजार नौजवानों की गुरिल्ला युद्ध करने वाली एक सेना बना रखी थी और अक्सर उनकी मुठभेड़ अंग्रेजी फौज से होती रहती थी. उनका खौफ अंग्रेज़ी फौज में इस कदर था कि वे उनके नाम से थर-थर कांपते थे. रज्जब अली की मजबूत मोर्चा बंदी और संगठन के कारण उन्हें पकड़ने या मारने के लगभग सभी प्रयास असफल हो रहे थे.


रज्जब अली ने अब अंग्रेजों के विरुद्ध सीधा मोर्चा खोल दिये और पूरे जिले में घूम-घूम कर लामबंदी करने लगे. जगह-जगह उनकी अंग्रेजों से मुठभेड़ होने लगी. रज्जब अली का शहर से 7 किमी पर स्थित गांव मोहब्बतपुर के जगबंधन सिंह से दोस्ती थी. दोनों क्रांतिकारी थे. अंग्रेज़ी फौज के सिपाहियों ने एक दिन रज्जब के दोस्त जगबंधन सिंह को घर से गिरफ्तार कर आजमगढ़ जेल उठा ले गये. कई दिनों तक जब वे घर नहीं आए तो जगबंधन सिंह के परिजन से संदेश पाकर रज्जब अली अपने साथियों को लेकर सीधे अंग्रेज़ी जेल पर ही धावा बोल दिया और जेल का फाटक तोड़कर अपने दोस्त को रिहा कर लिए गये.


आज़ादी की लौ यहीं नहीं बुझी ये अनवरत जलती रही कई थाने फूंके गये. जिसमें तरवां थाना कई दिनों तक जलता रहा. लोग अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्त होना चाहते थे. पहली बार 3 जून से 25 जून तक, दूसरी बार 18 जुलाई से 26 अगस्त 1857 तक और तीसरी बार 25 मार्च 1858 से 15 अप्रैल 1858 तक (कुल 81 दिनों) तक आज़मगढ़ स्वतंत्र रहा. कुछ के नाम इतिहास के पन्नो में दर्ज हुए लेकिन बहुत से नाम इतिहास में ही खो गये.


आज़मगढ़ के पत्रकार पवन उपाध्याय बताते हैं कि सुभाष चंद्र बोस के आवाहन पर यहां के कई युवक आज़ाद हिंद फौज में शामिल हुए. आज जितने नाम सामने आए हैं उनकी संख्या 43 के लगभग बताई जा रही है. वहीं और न जाने कितने लोगों ने इस आंदोलन में हिस्सा लिया और वो गुमनामी में खो गये. आज़मगढ़ की पुरानी जेल व कुँवर सिंह उद्यान आज़मगढ़ की आज़ादी की गौरव गाथा की आज भी गवाही दे रहे हैं.