नई दिल्ली: ट्रेन में बैठकर खिड़की से झांकते हुए आपने भी खूप पटरियों को मिलते और अलग होते देखा होगा. ये भी देखा होगा कि पटरियों के आस-पास तो जंग लगा होता है, लेकिन उनके ऊपर कई जंग की चादर नहीं दिखती. जंग नहीं, तो पटरियों की क्वॉलिटी भी हमेशा दमदार. कहा तो यही जाता है कि लोहा है तो जंग पड़ना लाजमी है, फिर भी पटरियां कभी खराब नहीं होतीं. क्या आपने कभी सोचा कि ऐसा कैसे हो जाता है? हम बताते हैं...


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जानें जंग लगने के पीछे का विज्ञान
आपको मालूम होगा कि लोहे की बनी कोई भी चीज तब जंग खाती है, जब उसपर हवा में मौजूद ऑक्सीजन का रिएक्शन होता है. ऑक्सीजनेशन के बाद लोहे पर एक भूरे रंग की परत चढ़ जाती है, जिसे आयरन ऑक्साइड कहते हैं. यह सिर्फ एक परत नहीं होती, बल्कि चादर दर चादर यह बढ़ती जाती है. यानि जितनी ज्यादा परत, उतना ज्यादा जंग.


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इस वजह से नहीं बन पाता जंग
हालांकि, लोहे से ही बनीं इन पटरियों के साथ ऐसा नहीं है. दरअसल, पटरियों में पूरी तरह से लोहा होता ही नहीं. रेलवे ट्रैक्स को खास तरीके की स्टील से बनाया जाता है, जिसमें मैंग्नीज मौजूद होता है. इस स्टील में 12% मैंग्‍नीज और 0.8% कार्बन होता है. इन मेटल्स की वजह से उसपर आयरन ऑक्‍साइड नहीं बन पाता और पटरियां जंग से बची रहती हैं.


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साइंस का इस्तेमाल कर रिस्क फैक्टर किया जीरो
अगर मैंग्नीज स्टील की जगह पटरियों को लोहे से ही बना दिया जाता तो बारिश और पानी की वजह से लगातार नमी बनी रहती है कुछ ही समय में जंग लग जाती. जाहिर है इससे पटरियां कमजोर होतीं और बहुत जल्‍द ही इन्हें बदलना पड़ता. कमजोर पटरियां बड़े एक्सीडेंट्स का कारण बन सकती हैं. इसलिए साइंस का इस्तेमाल करते हुए यह रिस्क फैक्टर जीरो कर दिया गया है.


इंडियन रेलवे को लेकर जानकारी
जानकारी के लिए बता दें हमारे देश में करीब 115,000 किलोमीटर लंबे रेलवे ट्रैक हैं. भारतीय रेलवे एशिया का सबसे बड़ा और दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है. वहीं, देश में सबसे स्लो स्पीड में चलने वाली ट्रेन केवल 10 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से चलती है. यह मेटुपालयम ऊटी नीलगिरी पैसेंजर ट्रेन है, जिसका नाम ट्रेन मेटुपालयम है.


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