अरविंद मिश्रा/मेरठ: आज-कल प्रदूषण किस कदर बढ़ रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है. इंसानी जरुरत के लिए पेड़-पौधों का कत्ल नई बात नहीं है. लेकिन मेरठ में बढ़ला-कैथवाडी गांव दुनिया भर को पर्यवारण के प्रति संजीदगी का पाठ पढ़ा रहा है. यहां दर्जन भर गांव से सटे जंगल में पेड़ काटना मना है. 17 हजार वर्गमीटर क्षेत्र की हरियाली किसी का भी मन मोह लेती है. यहां पेड़-पौधों को स्थानीय झंडे वाली मंदिर के भक्त माना जाता है. सभी पेड़-पौधे स्थानीय देवी मां के परिवार की तरह हैं. ऐसी मान्यता है कि पेड़-पौधों को यदि किसी ने नुकसान पहुंचाया तो देवी मां उसे सजा देती हैं. मंदिर के पास तालाब भी है, जिसमें रात के वक्त जंगली जानवर पानी पीने आते हैं.


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पेड़ काटने वाले के साथ होती है अनहोनी
मुजफ्फरनगर के एमएमडीटी गर्ल्स डिग्री कॉलेज के प्रिसिपल डॉ. जेएस तोमर के मुताबिक बढ़ला-कैथवाड़ी के पास 12 गांव की वंशावली पर शोध किया जा रहा है. अब तक मिली जानकारी के मुताबिक यहां तोमर बड़ी संख्या निवास करते रहे हैं. अर्जुन के वंशज कृतपाल ने 964 साल पहले इस मंदिर की स्थापना की थी. मूर्ति के नीचे शिलापट्ट लगा है.इसमें लिखा है कि इसका निर्माण सन् 1059 में अर्जुन के वंशज ठाकुर कृतपाल सिंह तोमर ने कराया था. इतिहासकारों के मुताबिक ''मंदिर की स्थापना के समय यहां पौधारोपण का कार्य किया गया. यह अब जंगल का रूप ले चुका है. यह प्रकृति के प्रति जवाबदेही का बेहतरीन उदाहरण है.''


राजा को आया सपना
मंदिर की पुजारी करदम मुनि महाराज के मुताबिक '' लगभग एक हजार साल पहले एक दिन राजा ठाकुर कृतपाल शिकार के लिए जा रहे थे. शाम होने हो जाने की वजह से वह यहीं ठहर गए. रात को उनको सपना आया जिसमें माता जी ने कहा कि आप यही मंदिर की स्थापना करवाइए.'' वह कहती हैं कि ''यदि किसी ने भी पेड़ या उसकी टहनी काटी तो उसके साथ अनहोनी की आशंका रहती है. ये अप्रिय घटना बीमारियों और आर्थिक नुकसान की शक्ल में होती हैं.''  सवाल है कि ऐसी लोक मान्यताएं पर्यावरण संरक्षण के लिए कितनी अहम हैं.


पेड़ काटने वालों के साथ हुई अनहोनी
एनएएस कॉलेज के इतिहास विभाग के पूर्व एचओडी प्रो. देवेशचंद्र शर्मा का कहना है कि ''आस्था के साथ पर्यावरण के इस संगम को सहेजने की जरूरत है. स्थानीय लोगों ने डीएफओ से मांग की है कि इसके संरक्षण के लिए प्रयास किए जाएं.'' बहरहाल, मेरठ की यह प्राकृतिक धरोहर और उससे जुड़ी मान्यताएं पर्यावरण संकट के बीच दुनिया को राह दिखाती है. पेड़-पौधों हजारों साल से हमारी आस्था का केंद्र रहे हैं. ये बात और है कि कुछ सालों में इंसानी जरुरत के लिए हमने इनका बेतहाशा दोहन किया. अब जरूरत पेड़-पौधों को उसी रूप में सहेजने की है जैसे बढ़वा-कैथवाड़ी के लोग कर रहे हैं.


भारतीय संस्कृति में पेड़-पौधों को देवी-देवता का दर्जा


जिले में पर्यावरण संरक्षण के कार्यक्रमों से जुड़ी डॉ वत्सला शर्मा के मुताबिक देशभर में पेड़-पौधों से जुड़ी सामाजिक लोक मान्यताएं हमारे जीवन का हिस्सा हैं. यह भारतीय संस्कृति में पेड़ों के प्रति लोगों के लगाव को जाहिर करती है. डॉ. वत्सला कहती हैं कि ''भारतीय संस्कृति में पेड़-पौधों को भगवान का दर्जा दिया जाता है. पीपल, बरगद,नीम समेत अनेक वृक्षों की समय-समय पर पूजा की जाती है. यदि किसी विशेष परिस्थिति में उन्हें काटने की जरूरत होती है तो उसके लिए भी कुछ मान्यताएं होती हैं. उसके बदले अन्य जगह पौधे भी लगाए जाते  हैं. इन मान्यताओं को पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.''


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