`सान्निध्य सम्वाद` लन्दन के सान्निध्य में `पृथ्वीराज` पर जीवन्त विमर्श
डॉ.
डॉ. राजीव श्रीवास्तव
समसामयिक विषयों पर जीवन्त परिचर्चा का आयोजन ‘सान्निध्य लन्दन’ (Sannidhya London) और ‘एस.ए.सी.एफ़’ (South Asian Cinema Foundation - SACF, London) के संयुक्त तत्वाधान में विगत उन्नीस वर्षों से होता आ रहा है तथा गत पन्द्रह वर्षों से इसका वैश्विक प्रसारण नेट/ वेबिनार के प्रारूप में हो रहा है. इस शृंखला की तैंतीसवीं कड़ी में रविवार 12 जून 2022 को आयोजित सम्वाद में डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी निर्देशित उनकी नवीनतम फ़िल्म ‘पृथ्वीराज’ पर केन्द्रित थी.
बी.बी.सी. लन्दन, हिन्दी सेवा के पूर्व प्रसारक (BBC, London-Hindi Service), ‘सान्निध्य’ और ‘एस.ए.सी.एफ़’ के निदेशक, वरिष्ठ लेखक, विचारक, वृत्तचित्र निर्माता-निर्देशक एवं सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार ललित मोहन जोशी के इस सान्निध्य सम्वाद के इस कड़ी के आमन्त्रित अतिथि थे व्यवसाय से आयुर्विज्ञान के वैद्य (डॉक्टर), पद्मश्री चन्द्र प्रकाश द्विवेदी. डॉ. द्विवेदी स्वयं एक प्रबुद्ध लेखक-चिन्तक-विचारक-शोधकर्ता के साथ ही प्रसिद्ध फ़िल्मकार, पटकथा लेखक एवं अभिनेता हैं जिन्होंने नब्बे के दशक में अपने टी वी धारावाहिक ‘चाणक्य’ से जन-जन के मध्य अपनी अमिट छवि अंकित करके लोकप्रियता के जिस शीर्ष पर स्वयं को विराजित किया था वह वर्तमान में भी अतुलनीय है.
भारत में विगत एक पखवाड़े से फ़िल्म ‘पृथ्वीराज’ को लेकर एक समुदाय-वर्ग-संगठन विशेष द्वारा जिस नकारात्मक वैचारिक विष वमन को मूर्त रूप दिया जाता रहा है उस पर से संशय-भ्रम के कारे मेघ ‘सान्निध्य सम्वाद’ की वर्तमान प्रस्तुति से स्वतः ही छट गए हैं. इस विशेष प्रस्तुति में मैं ललित मोहन जोशी के विवेक एवं उनके समसामयिक चयन की बौद्धिक प्रखरता हेतु भूरि-भूरि प्रशंसा करना चाहूंगा जो उन्होंने इस फ़िल्म के लेखक-निर्देशक को ही साक्षात विमर्श हेतु उपस्थित करके समस्त दुविधा एवं अनर्गल प्रलाप पर पूर्ण विराम लगा दिया. एक फ़िल्मकार जब फ़िल्म व्यवसाय के गणित से परे स्वयं को शोध-अध्ययन से उपजे परिणामों के प्रति समर्पित भाव से प्रस्तुत करके दृश्य-परिदृश्य के निरूपण को कलात्मक स्वरूप प्रदान करता है तो फल के रूप में मिलने वाला प्रसाद ‘पृथ्वीराज’ के रूप में रजत पटल पर अवतरित हो उठता है. इस जीवन्त विमर्श में डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी का आख्यान ललित मोहन जोशी के प्रश्नों को ही पतवार बना कर जिस प्रकार से भ्रम के सागर में उठने वाले संशय के ज्वार-भाटा को शनैः शनैः शान्त कर रहा था वह मुझे ‘पत्रकारिता’ से विलग एक शाश्वत शास्त्रार्थ का बोध करा रहा था. महाकवि चन्द बरदाई के महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ पर आधारित कई नाट्य एवं चलचित्र पूर्व में भी निर्मित-चित्रित हुए हैं पर डॉ. द्विवेदी की इस प्रस्तुति से विरोध, रुदन एवं मिथ्या कुचेष्टा ने जिस प्रकार ताण्डव करने का प्रयास किया है उसे सान्निध्य के प्रस्तुत विमर्श ने अकस्मात् नहीं अपितु एक सुनियोजित षड्यन्त्र का कृत्य सिद्ध कर दिया है. इस जीवन्त सम्वाद ने यह प्रश्न भी उठाया है कि ‘वामपंथी’ होने मात्र से किसी समूह-वर्ग-दल को क्या यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह मूल शाश्वत सत्य को ही नष्ट करने में जुट जाए? आप यह तो आशा करते हैं कि आपके विचार को अन्य समस्त वर्ग-समुदाय सहज ही स्वीकार ले परन्तु आप अन्यों के वैचारिक दर्शन को अमान्य करने पर आक्रामकता के पार चले जाएँ। यह घोर विरोधाभास ‘मतभेद’ के स्थान पर ‘मनभेद’ को प्रश्रय देता है जो सनातन धर्म और परम्परा के विरुद्ध एवं मानवता के पोषण के सर्वथा प्रतिकूल है. कोई धर्म विशेष भी जब अन्य सभी धर्मों और उनके अनुयायियों को पतित मानने का उपक्रम रचता हो तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ एवं ‘वैश्विक शान्ति’ का यज्ञ कैसे पूर्ण हो सकता है?
मैं स्वयं इस कुप्रचार का शिकार हो गया था कि ‘पृथ्वीराज’ को देखने के लिए दर्शक समुचित मात्रा में छविगृहों में नहीं पहुँच रहे हैं जिस कारण दिल्ली में रहते हुए मुझे दो बार इस फ़िल्म का टिकट न मिलने से इसे देखने से वंचित होना पड़ा था। मैं तथाकथित कुप्रचारकों के मिथ्या प्रलाप को सत्य मान कर आश्वस्त था कि जिस दिन भी इस फ़िल्म को देखने की इच्छा होगी, इसे देख लूँगा पर हुआ इसके उलट. सम्भव है ऐसा ही अनुभव ढेरों अन्य लोगों को भी हुआ होगा. असत्य की संगति व्यक्ति, समूह और संस्था विशेष को अन्ततः अविश्वसनीय बना कर अन्धकार के कुएँ में सदा के लिए ढांप देती है.
ललित मोहन के अनुशासन ने प्रस्तुत सम्वाद से जिस एक तथ्य को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है वह पत्रकारिता के साथ-साथ विमर्श एवं वार्तालाप जैसा कुछ भी आयोजित-प्रायोजित करने वालों को यह सीख दे गया है कि आमन्त्रित वक्ता विषय-वस्तु की परिधि को लाँघने न पाए. विचार और उसमें निहित कथ्य-तथ्य की प्रमाणिकता से ही कोई व्यक्ति साधारण से असाधारण बनता है पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कोई व्यक्ति विशेष स्वयं में वैचारिक सम्पदा की तुलना में अत्यधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान हो जाए. प्रायः लोग इस प्रकार की भूल कर बैठते हैं पर ललित मोहन स्वयं को संयमित-अनुशासित रखने के साथ ही चन्द्र प्रकाश जैसे वैचारिक वैभव से युक्त व्यक्तित्व को समय के सापेक्ष व्यवस्थित करते रहे जो उनके अनुभव के परिपक्व आभा का द्योतक है जिसे अन्य समस्त क्षेत्रों के सूत्रधारों को आत्मसात करने की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है.
‘सान्निध्य सम्वाद’ के इस सत्र की अध्यक्षता बीबीसी हिन्दी के पूर्व सम्पादक तथा सुप्रसिद्ध राजनीतिक टीकाकार एवं समीक्षक शिवकान्त शर्मा ने जिस संयमित तथा एकाग्र मनोवृत्ति से किया वह उनके वक्तव्य से स्वतः ही सम्प्रेषित भी हो रहा था. ‘सान्निध्य सम्वाद’ के इस अंक ने जिस परस्पर विश्वास को जन्म दिया है उसने भविष्य में इस संस्था द्वारा आयोजित होने वाले कार्यक्रमों के प्रति लोगों की उत्कण्ठा को सदा के लिए जागृत कर दिया है. इस प्रकार का विश्वास अर्जित करने में किसी व्यक्ति, समुदाय और संस्था को दशकों लग जाते हैं जिसके लिए निःसन्देह ‘सान्निध्य’ परिवार बधाई का पात्र है.
जीवन्त सम्वाद के इस अंक का सूत्र मैं यहाँ दे रहा हूं जिसके माध्यम से वे लोग इस महत्वपूर्ण विमर्श को देख-सुन सकते हैं जो किसी कारण वश इसे देखने से अब तक वंचित रह गए हैं. आपके विचारों-सुझावों का स्वागत है.
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