देहरादून/विनोद कांडपाल: उत्तराखंड हमेशा से अपनी पुरानी धरोहरों के लिए जाना जाता है. नदियों और पहाड़ों के संगम वाला ये प्रदेश आज भी अपनी पुरानी मान्यताओं को जीवंत बनाए रखने के लिए प्रयास कर रहा है. उन्हीं में से एक है सदावाहिनी नदियों के तट पर बनाए गए 'घट' (पनचक्की). ये पहाड़ी क्षेत्रों में  गेहूँ, मक्का, जौ और दाल की पिसाई के लिए पुराने समय से उपयोग में लाये जा रहे हैं. आज के इस आर्टिकल में हम आपको बताएंगे पहाड़ी पनचक्की क्यों है खास. 


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नदियों के तट पर बनाए जाते थे घट
पुराने समय में हमेशा बहने वाली नदियों के तट पर 'घट' (पनचक्की) का निर्माण किया जाता था. जो पानी के तेज बहाव की मदद से चलते है, इसमें किसी भी तरह की बिजली या किसी अन्य संसाधन की जरूरत नहीं होती. पानी के बहाव से उत्पन्न एनर्जी की मदद से इसमें पिसाई का काम किया जाता है. 


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घट में पिसाई
घट में पिसाई के लिए नदियों से बह रहे पानी का एक छोटा स्रोत घट की ओर प्रवाहित किया जाता है. यहां तक पानी लाने के लिए 200-300 मीटर का जलमार्ग तैयार किया जाता है. यह रास्ता पीछे से चौड़ा और आगे से संकरा होता है, जिससे पानी में वेग पैदा हो सके. इस जलमार्ग द्वारा नदी से पानी को पनाले कि और प्रवाहित कर दिया जाता है. इसके कारण पानी का बहाव तेज हो जाता है. इसके नीचे पंखेदार चक्र (भेरण) रखकर उसके ऊपर चक्की के 2 पाट रखे जाते है. ये पाट पत्थर के बने होते है. पंखे के चक्र का बीच का हिस्सा व ऊपर उठा नुकीला भाग ऊपरी चक्के के खांचे में निहित लोहे की खपच्ची में फंसाया जाता है. पानी के वेग से पंखेदार चक्र घूमने लगता है. पिसाई के पाट के ऊपर लकड़ी का पात्र रखा जाता है. इस पात्र में अनाज को डाला जाता है. यह पात्र ऊपर से चौड़ा और नीचे से संकरा होता है. संकरे हिस्से में लकड़ी की नाली लगाई जाती है जिससे की अनाज लकड़ी की नाली से हो कर चक्की वाले पाट के छिद्र में गिरे. 


24 घंटे में होती है इतनी पिसाई
पनचक्की में 24 घंटे में लगभग 2 क्विटल अनाज की पिसाई होती है. इसके चार्ज भी दूसरी चक्कियों से कम है. यहां के स्थानीय लोग आज भी गेंहू पिसाने के लिए पनचक्की का ही उपयोग करते हैं. 


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