जवाहर लाल नेहरू की सबसे बड़ी गलती क्या थी, इंदिरा और उनके पति के रिश्ते में क्यों आई दरार?
ZEE News Time Machine: 1959 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने ऐसी गलती की थी कि जिसकी चर्चा बहुत कम होती है. उस वक्त भी चीन और भारत के रिश्ते अच्छे नहीं थे और तब नेहरू ने 1959 के रक्षा बजट में भारी कटौती की थी.
Time Machine on Zee News: ज़ी न्यूज की स्पेशल टाइम मशीन में आज शनिवार को हम आपको बताएंगे साल 1959 के उन किस्सों के बारे में जिसके बारे में आप शायद ही जानते होंगे. ये वही साल है जब दलाई लामा तिब्बत छोड़कर भारत शरण लेने आए थे. जब भारत को तीर्थ मानने वाले मार्टिन लूथर भारत यात्रा पर आए थे. इसी साल अमेरिकी राष्ट्रपति को नेहरू ने अपनी कार में बिठाकर राजपथ घुमाया था. ये वही साल है जब निर्मोही अखाड़ा ने रामजन्म भूमि में पूजा का हक मांगा था. इसी साल नेहरू इतनी बड़ी गलती कर बैठे थे कि इसका खामियाजा सेना को भुगतना पड़ा था. इसी साल इंदिरा गांधी और उनके पति फिरोज गांधी के रिश्ते में दरार आई थी. आइये आपको बताते हैं साल 1959 की 10 अनसुनी अनकही कहानियों के बारे में.
अमेरिकी राष्ट्रपति को देखने आए 10 लाख लोग
1959 में जब अमेरिका के राष्ट्रपति ड्वाइट डी आइसेनहॉवर (Dwight D Eisenhower) भारत आए तो लोगों ने दिल खोल कर उनका स्वागत किया. कहा जाता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अमेरिकी राष्ट्रपति को प्रभावित करने के लिए 10 लाख लोगों की भीड़ जुटाई थी. भारत भ्रमण के दौरान जवाहर लाल नेहरू आइसेनहॉवर को ताजमहल भी ले गए थे. ताजमहल के पास एक गांव में नेहरू और अमेरिकी राष्ट्रपति ने खुली जीप में भी सैर की थी. यहां दोनों ने ग्रामीण परिवेश को करीब से देखा और समझा. इस दौरान गांव की महिलाओं से नेहरू ने बातचीत भी की थी. नेहरू को सामने देखकर गांव की महिलाओं ने घूंघट ओढ़ लिया, जिस पर उन्होंने कहा कि इसकी क्या जरूरत है? मैं तो आपके पिता समान हूं. आप बेहिचक बातचीत करिए. जिसके बाद महिलाओ ने पंडित नेहरू और अमेरिकी राष्ट्रपति से खूब बातें की. गांव वालों से मिलने के बाद आइसेनहॉवर ने कहा कि मैं भी किसान का बेटा हूं. आपके गांव में आप लोगों के द्वारा किए गए सेवा सत्कार को देखकर मुझे अपने गांव की याद आ गई. जब मैं व्हाइट हाउस में नहीं होता हूं तब मैं अपने गांव में होता हूं और मिट्टी के करीब होता हूं. आज मैं जब यहां आया हूं तब मैं किसानों के दुःख दर्द को समझ पाया हूं.
जब दलाई लामा भारत आए
हिमालय और तिब्बत, यानी दुनिया का वो हिस्सा है जो अपने सर्द मौसम और शांतिपूर्ण माहौल के लिए जाना जाता था. लेकिन साल 1959 में तिब्बत चीन के अत्याचार की आग में झुलस रहा था. चीनी सैनिक बौद्ध धर्मगुरुओं और बौद्ध धर्म मानने वाले लोगों पर हैवानियत की हद तक अत्याचार कर रहे थे. तिब्बतियों के धर्मगुरु दलाई लामा उस समय मात्र 15 वर्ष के थे. चीन की भारी-भरकम सेना और हथियारों के सामने तिब्बत के आठ हजार सैनिक नाकाफी साबित हुए. 17 मार्च 1959 ये वो दिन था, जब चीनी सेना दलाई लामा के परिवार के बेहद करीब पहुंच गई. चीन के गिरफ्त में आने से बचने के लिए 15 साल के दलाई लामा अपनी मां, एक बहन, दो भाई और कुछ सैनिकों के साथ भेष बदलकर वहां से निकल गए. दलाई लामा की तलाश में चीनी सैनिकों ने पूरे तिब्बत को रौंद डाला. लेकिन दलाई लामा चीन की पकड़ में नहीं आए और गांव-गांव छिपते हुए वो हिंदुस्तान की ओर बढ़ने लगे. इधर पूरी दुनिया को ये लगने लगा कि चीन की फौज में दलाई लामा को मार डाला. लेकिन दलाई लामा चीनी सैनिकों की पकड़ में नहीं आए और सुरक्षित भारत पहुंचने में कामयाब रहे. भारत सरकार ने उन्हें शरण दी. चीन को ये बात पसंद नहीं आई. कहा जाता है कि 1962 के भारत-चीन युद्ध की एक बड़ी वजह ये भी थी. चीन की तमाम धमकियों के बावजूद दलाई लामा पिछले 63 वर्षों से भारत में रह रहे हैं.
रक्षा बजट में कटौती देश को पड़ी भारी
1959 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने ऐसी गलती की थी कि जिसकी चर्चा बहुत कम होती है. उस वक्त भी चीन और भारत के रिश्ते अच्छे नहीं थे और तब नेहरू ने 1959 के रक्षा बजट में भारी कटौती की थी. इस कटौती के तीन साल बाद भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ. जिसमें चीनी सैनिकों ने सीमा पर तैनात भारतीय जवानों को बंधक बना लिया और तब भारत ये युद्ध बुरी तरह हार गया था. 1959 के बजट में रक्षा क्षेत्र में भारी कटौती की गई थी. रक्षा बजट लगभग 25 करोड़ रुपये कम कर दिया गया था. साथ ही केन्द्रीय बजट को 839 करोड़ से 757 कर उसमें 82 करोड़ रुपये की कटौती की गई थी. जवाहर लाल नेहरू के कुछ गलत फैसलों की कड़ी में ये पहला फैसला था, जिसकी वजह से भारतीय सेना 1962 के युद्ध में चीन से बुरी तरह हार गई थी. जनरल एएस थिमैया की जीवनी 'थिमैया ऐन अमेजिंग लाइफ़' के मुताबिक भारतीय सेना चीन के खतरे को समझ रही थी, लेकिन भारतीय सेना मजबूर थी क्योंकि सेना के पास न तो संसाधन थे और ना ही पर्याप्त बजट. बजट में कटौती की वजह से भारत ना सिर्फ युद्ध हारा, बल्कि अक्साई चीन में हजारों वर्ग किलोमीटर का इलाका भी चीन के हाथों गंवा बैठा.
रक्षा मंत्री और सेना जनरल के बीच मतभेद
सितंबर, 1959 में तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल थिमैया ने रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन से अपने मतभेदों के चलते इस्तीफा दे दिया था. ऊपरी तौर पर ये बताया गया था कि ये मतभेद कुछ अफसरों की पदोन्नति के मुद्दे पर थे. लेकिन अब मिले अभिलेखीय सबूतों के आधार पर कहा जा सकता है कि इस इस्तीफे की वजह इससे कहीं अधिक गहरी थी. सरदार पटेल की मृत्यु के सात साल बाद, भारतीय सेना की कमान संभालने वाले जनरल थिमैया ने चीन के मुकाबले भारत की सैन्य क्षमता पर प्रधानमंत्री नेहरू और रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन से सीधा संवाद किया, लेकिन आरोप है कि नेहरू ने इस पूरे प्रकरण में अपनी सरकार की लाज बचाने के लिए राजनीति की और जनरल थिमैया को अलग-थलग कर दिया. चंद्रा बी खंडूरी की किताब Thimayya: An Amazing Life की माने तो जनरल थिमैया ने ये सारी बातें रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन को बताई थी, लेकिन कृष्ण मेनन, जनरल की बात सुनने को तैयार नहीं थे. उनका मानना था कि चीन से भारत को कोई खतरा नहीं है और भारत हर चुनौती से निपटने के लिए तैयार है. आखिर में जनरल थिमैया ने रक्षामंत्री को दरकिनार कर सीधे प्रधानमंत्री नेहरू से सेना की स्थिति के बारे में बात की. जब रक्षा मंत्री को पता चला कि जनरल थिमैया ने सीधे प्रधानमंत्री से बात की है तो उन्होंने जनरल थिमैया को फटकार लगाई. जिसके बाद थिमैया ने अपना त्यागपत्र रक्षा मंत्री को सौंप दिया.
इंदिरा को जब पति ने कहा-फासीवादी
बात उस दौर की है जब पूरे देश में कांग्रेस का एकतरफा राज हुआ करता था. 1959 में कम्युनिस्ट पार्टी ने चौंकाते हुए केरल में अपनी पहली कम्युनिस्ट सरकार बनाई थी. उस समय इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं. उन्होंने फैसला किया था कि केरल में चुनी हुई पहली कम्युनिस्ट सरकार को पलट कर वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाए. इस बात से फिरोज गांधी बिल्कुल भी सहमत नहीं थे. फिरोज गांधी अभिव्यक्ति की आजादी के बड़े समर्थक थे. यही कारण था कि एक दिन फिरोज गांधी, इंदिरा गांधी और जवाहर लाल नेहरू आनंद भवन में खाना खाने के लिए बैठे हुए थे. इसी दौरान मेज पर खाना खाते समय केरल में तख्ता पलट की बात उठी तो फिरोज ने इंदिरा को फासीवादी कह दिया था. जिस पर इंदिरा ने तो कोई प्रतिक्रिया नही दी. लेकिन ये बात पंडित नेहरू को काफी बुरी लगी थी.
निर्मोही अखाड़ा ने मांगा रामजन्म भूमि के संरक्षण का हक
साल 1959 में वैष्णव संप्रदाय के निर्मोही अखाड़े ने खुद को उस जगह का संरक्षक बताया जहां भगवान राम का जन्म हुआ था. सबसे पहली कानूनी प्रक्रिया भी इसी अखाड़े के महंत रघुवीर दास ने साल 1885 में शुरू की थी. निर्मोही अखाड़े ने एक याचिका दायर करके राम जन्मभूमि वाले स्थान के चबूतरे पर छत्र बनवाने की इजाजत मांगी थी. जिसे फैजाबाद की जिला कोर्ट ने खारिज कर दिया था, तब ये मामला उतना नहीं उछला था, जितनी तेजी इसने 1959 में पकड़ी थी. राम जन्मभूमि पर अपने दावे को लेकर साल 1959 में निर्मोही अखाड़े के तत्कालीन महंत रघुनाथ दास ने न्यायालय में याचिका दाखिल करते हुए कहा था कि उसे राम जन्मभूमि के पूजा-पाठ और प्रबंधन की अनुमति मिले. दावा किया गया था कि राम जन्मभूमि का अंदरुनी हिस्सा सैकड़ों वर्षों से निर्मोही अखाड़े के अधिकार में रहा है, इसलिए वहां का पूरा अधिकार उसे दिया जाए. निर्मोही अखाड़े की इस मांग के बाद ही राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का विवाद बढ़ने लगा था.
भारत में तीर्थयात्री बनकर आए मार्टिन लूथर
10 फरवरी, 1959 को मार्टिन लूथर किंग जूनियर अपनी पत्नी के साथ भारत यात्रा पर आए. अमेरिका में अश्वेत नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों के लिए आंदोलन करने वाले मार्टिन लूथर किंग का भारत में भव्य स्वागत किया गया. उन्हें इंडिया गेट के पास एक लग्जरी होटल में ठहराया गया. जहां एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान उन्होंने कुछ ऐसा कहा जिसे सुनकर हर भारतीय को खुद पर गर्व हुआ. मार्टिन लूथर किंग ने कहा कि दूसरे देशों में मैं एक पर्यटक के तौर पर जाता हूं, लेकिन भारत में मैं तीर्थयात्री के रूप में आया हूं. मार्टिन लूथर किंग एक महीने तक भारत में रूके. इस दौरान उन्होनें कई स्कूलों, कॉलेजों मंदिरों, सरकारी दफ्तरों और संग्राहलयों के साथ कई राज्यों का भ्रमण किया. भारत छोड़ने से एक दिन पहले यानी 9 मार्च, 1959 को आकाशवाणी से प्रसारित अपने विदाई भाषण में उन्होंने कहा कि भारत एक ऐसी भूमि है जहां आज भी आदर्शवादियों और बुद्धिजीवियों का सम्मान किया जाता है. अगर हम भारत को उसकी आत्मा बचाए रखने में मदद करें, तो इससे हमें अपनी आत्मा को बचाए रखने में मदद मिलेगी. मार्टिन लूथर किंग महात्मा गांधी को अपना नायक मानते थे और एक शिष्य के रूप में महात्मा गांधी के विचारों को अपने जीवन में उतारा करते थे.
संस्कृत श्लोक से बना वायुसेना का LOGO
भारतीय वायुसेना देश की सशस्त्र सेना का अटूट अंग है. जिसपर वायु युद्ध, वायु सुरक्षा और वायु चौकसी का जिम्मा है. भारतीय वायु सेना की स्थापना 8 अक्टूबर 1932 को की गयी थी. लेकिन वायुसेना का लोगो 21 अप्रैल 1959 को राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने लांच किया था. वायुसेना के लोगो पर लिखा है नभ: स्पृशं दीप्तम् यानि गर्व के साथ आकाश को छूना. संस्कृत भाषा के इस वाक्य को श्रीमदभगवद गीता के 11वें अध्याय से लिया गया है. श्रीमदभगवद् गीता का ये श्लोक महाभारत युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण के अर्जुन को दिए उपदेश का हिस्सा है. जिसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समस्त सांसारिक मोह को भुलाकर धर्म के लिए युद्ध करने का ज्ञान दिया था.
भारत नेपाल के बीच गंडक समझौता
गंडक नदी नेपाल और बिहार में बहने वाली एक नदी है. इस नदी को नेपाल में सालग्रामी और मैदानी इलाकों में नारायणी तथा सप्तगण्डकी के नाम से भी पुकारते हैं. गंडक नदी हिमालय से निकलकर दक्षिण-पश्चिम की ओर बहती हुई भारत में प्रवेश करती है. इसी नदी के पानी पर भारत-नेपाल के बीच वर्ष 1959 में एक समझौता हुआ था. जिसे गंडक समझौते के नाम से जाना जाता है. इस समझौते के अन्तर्गत गंडक नदी पर बिहार के वाल्मीकि नगर में एक बैराज बनाया गया. समझौते के बाद चार मई 1964 को भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और नेपाल के राजा महेंद्र वीर विक्रम शाह की उपस्थिति में वाल्मीकि नगर बैराज का शिलान्यास किया गया. करीब पांच सालों तक चले निर्माण कार्य के बाद वाल्मीकि नगर का बैराज वर्ष 1969-70 में बनकर तैयार हो गया. बैराज की लंबाई 747.37 मीटर और ऊंचाई 9.81 मीटर है. इस बैराज का आधा हिस्सा भारत में है और आधा हिस्सा नेपाल में है.
जब हुई दूरदर्शन की शुरूआत
दूरदर्शन... यानी भारत में टीवी युग की शुरुआत. दूरदर्शन का जिक्र होता है तो अतीत के ना जाने कितने सुनहरे किस्से ताजा हो उठते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि दूरदर्शन यानी टीवी का युग भारत में कब शुरू हुआ था. 15 सितंबर 1959 को देश के पहले टीवी चैनल ‘दूरदर्शन’ की शुरुआत हुई थी. आपको जानकर हैरानी होगी कि, जब दूरदर्शन की शुरूआत हुई तब इसका नाम ‘दूरदर्शन’ नहीं बल्कि ‘टेलीविजन इंडिया’ हुआ करता था. इसकी शुरूआत दिल्ली से हुई थी. शुरुआत में ‘दूरदर्शन’ यानि टेलिविजन इंडिया पर स्कूली बच्चों और किसानों के लिए शैक्षणिक कार्यक्रम का प्रसारण किया जाता था. शुरुआत में हफ्ते में सिर्फ तीन दिन ही टीवी पर कार्यक्रमों का प्रसारण होता था और वो भी सिर्फ आधे घंटे के लिए.
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