नई दिल्ली: देश में सुधार वाले कृषि कानून (Farm Law) वापस ले लिए गए हैं. संसद में करीब 439 दिन पहले देश की संसद से जिन कृषि क़ानूनों को पास किया गया था, उसी संसद से कृषि क़ानून को वापस लेने की संवैधानिक प्रक्रिया भी पूरी हो गई. लोक सभा और राज्य सभा दोनों सदनों में तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने वाले बिल को पास कर दिया गया. इस बिल पर वोटिंग नहीं हुई. बल्कि इसे ध्वनिमत से पास किया गया. 


इतिहास का बनें तीनों कृषि क़ानून'


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

वोटिंग में ये पता चलता है कि कितने सदस्यों ने बिल का समर्थन किया और कितने सदस्यों ने विरोध किया. जबकि ध्वनिमत में लोक सभा स्पीकर द्वारा सांसदों से हां या ना में बिल पर वोटिंग के लिए कहा जाता है. हां और ना में जिसकी ध्वनि ज्यादा होती है, उससे ये तय होता है कि बिल पास हुआ या नहीं. 


पिछले साल जब लोक सभा और राज्य सभा में ये कानून पेश हुए थे, तब भी इन्हें ध्वनिमत से ही सरकार ने पास कराया था. अब इस बिल को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पास भेजा जाएगा और उनके हस्ताक्षर करते ही ये तीनों कृषि क़ानून इतिहास बन जाएंगे. 


कांग्रेस का प्रदर्शन


लेकिन ये शायद इस देश का दुर्भाग्य ही है कि कृषि सुधार की कोशिशों ने तो आज दम तोड़ दिया लेकिन इसके विरोध में चल रहा आन्दोलन और विपक्षी पार्टियों की राजनीति अब तक जीवित है.
 



 आज राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने संसद परिसर में बिल पर बहस नहीं कराने के लिए सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया. राहुल गांधी ने ये भी कहा कि प्रधानमंत्री मोदी को इन कानूनों की वजह से मारे गए किसानों की कीमत चुकानी पड़ेगी. इसके अलावा किसान संगठनों ने भी ऐलान किया कि वो अभी अपना आन्दोलन समाप्त नहीं करेंगे. सबसे पहले आपको ये सारी प्रतिक्रिया सुनवाते हैं.


कानून वापसी किसकी जीत?


हम नहीं जानते कि कृषि कानूनों की वापसी किस किसान संगठन, विपक्षी पार्टी और विपक्षी नेता की जीत है. लेकिन हम ये ज़रूर जानते हैं कि ये कृषि सुधारों की बहुत बड़ी हार है. असल में हमारे देश में लोग सुधार की कड़वी गोलियां नहीं खाना चाहते. आज अगर हमारे देश के लोगों को एक डॉक्टर और एक हलवाई में से किसी एक का चुनाव करना पड़े तो वो हलवाई का चुनाव करेंगे. 


क्योंकि हलवाई डॉक्टर की तरह कड़वी गोलियां खाने के लिए नहीं कहेगा, रोज़ व्यायाम करने की सलाह नहीं देगा और उन्हें अनुशासन में रखेगा. जबकि हलवाई ये कहेगा कि किसी को ये अधिकार नहीं है कि वो लोगों को स्वस्थ रखने के लिए उन्हें कड़वी गोलियां खिलाए. वो दिनभर आपको मीठा खाने देगा और व्यायाम करने के लिए भी नहीं कहेगा. इसलिए हमारे देश के बहुत से लोग डॉक्टर की कड़वी गोलियों से बचने के लिए हलवाई का चुनाव कर लेंगे. जबकि सच ये है कि मरीज़ डॉक्टर की कड़वी गोलियों से तो बच सकता है लेकिन वो ऐसा करके ठीक नहीं हो सकता. और हमारे देश के कुछ किसानों ने भी ऐसा ही किया है.


सबसे बड़ा सवाल


आपको बता दें कि साल 1951 और 1952 में जब देश में पहले लोक सभा चुनाव हुए थे, तब भी देश में किसान बड़ा मुद्दा थे. कई सरकारों में किसानों के हज़ारों करोड़ रुपये के कर्ज माफ हुए. इस देश में हरित क्रान्ति हुई. पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार में कृषि को आधुनिक रूप देने की कोशिश हुई.


किसानों को सब्सिडी से लेकर कई सरकारी योजनाओं के लाभ दिए गए और मौजूदा केंद्र सरकार ने तो इतिहास में पहली बार छोटे किसानों को सालाना 6 हज़ार रुपये का इनकम सपोर्ट देने की योजना शुरू की. इसके बावजूद किसानों की समस्या और मांगें नहीं बदली हैं. इससे आप समझ सकते हैं कि मदद कभी भी सुधारों की जगह नहीं ले सकती.