कर्नाटक चुनावः लिंगायत समुदाय की अलग धर्म की मांग BJP के लिए परेशानी
कर्नाटक की आबादी में 18 फीसदी लिंगायत समुदाय के लोग हैं.
कर्नाटक में अप्रैल में होने जा रहे संभावित विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में लिंगायत समुदाय को अलग धर्म की मान्यता देने की मांग पर राजनीति गरमा गई है. वर्तमान में लिंगायत समाज को कर्नाटक की अगड़ी जाति माना जाता है, लेकिन तकनीकी रूप से ये अन्य पिछड़ा वर्ग में आते हैं. कर्नाटक की आबादी में 18 फीसदी लिंगायत समुदाय के लोग हैं. पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भी लिंगायतों की अच्छी खासी आबादी है. बीजेपी के सीएम चेहरे बीएस येदियुरप्पा इसी लिंगायत समुदाय से नाता रखते हैं.
सीएम सिद्धारमैया ने दिया समर्थन
पिछले साल बीदर जिले में लिंगायतों ने बड़ी जनसभा कर खुद को अलग धर्म की मान्यता देने की मांग की थी. तब से राज्य में इस मसले पर राजनीति गर्म है. दरअसल बीएस येदियुरप्पा के जनाधार को कमजोर करने के मकसद से लिंगायत समुदाय के मसले को उठाने की बात कही जा रही है. बीजेपी, लिंगायत समुदाय को अपना परंपरागत वोट बैंक मानती है. माना जा रहा है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के लिंगायतों की मांग का खुलकर समर्थन करने के पीछे भी यही बात है. सिद्धारमैया ने पांच मंत्रियों की एक समिति बनाई है, जिनकी रिपोर्ट के बाद उनकी सरकार लिंगायत को अलग धर्म की मान्यता देने के लिए केंद्र सरकार को लिखेगी.
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लिंगायत समुदाय
बड़ा सवाल यह है कि अलग धर्म की मांग करने वाले लिंगायत आखिर कौंन हैं? क्यों यह समुदाय राजनीतिक तौर पर इतनी अहमियत रखता है? दरअसल भक्ति काल के दौरान 12वीं सदी में समाज सुधारक बासवन्ना ने हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था. उन्होंने वेदों को खारिज कर दिया और मूर्तिपूजा की मुखालफत की. उन्होंने शिव के उपासकों को एकजुट कर वीरशैव संप्रदाय की स्थापना की. आम मान्यता ये है कि वीरशैव और लिंगायत एक ही होते हैं. लेकिन लिंगायत लोग ऐसा नहीं मानते. उनका मानना है कि वीरशैव लोगों का अस्तित्व समाज सुधारक बासवन्ना के उदय से भी पहले से था. वीरशैव भगवान शिव की पूजा करते हैं. वैसे हिंदू धर्म की जिन बुराइयों के खिलाफ लिंगायत की स्थापना हुई थी आज वैसी ही बुराइयां खुद लिंगायत समुदाय में भी पनप गई हैं.
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लिंगायत और सियासत
राजनीतिक विश्लेषक लिंगायत को एक जातीय पंथ मानते हैं, न कि एक धार्मिक पंथ. राज्य में ये अन्य पिछड़े वर्ग में आते हैं. अच्छी खासी आबादी और आर्थिक रूप से ठीकठाक होने की वजह से कर्नाटक की राजनीति पर इनका प्रभावी असर है. अस्सी के दशक की शुरुआत में रामकृष्ण हेगड़े ने लिंगायत समाज का भरोसा जीता. हेगड़े की मृत्यु के बाद बीएस येदियुरप्पा लिंगायतों के नेता बने. 2013 में बीजेपी ने येदियुरप्पा को सीएम पद से हटाया तो लिंगायत समाज ने भाजपा को वोट नहीं दिया. नतीजतन कांग्रेस फिर से सत्ता में लौट आई. अब बीजेपी फिर से लिंगायत समाज में गहरी पैठ रखने वाले येदियुरप्पा को सीएम कैंडिडेट के रूप में आगे रख रही है. अगर कांग्रेस लिंगायत समुदाय के वोट को तोड़ने में सफल होती है तो यह कहीं न कहीं बीजेपी के लिए नुकसानदेह साबित होगी.
एक दशक से हो रही मांग
समुदाय के भीतर लिंगायत को हिंदू धर्म से अलग मान्यता दिलाने की मांग समय-समय पर होती रही है. लेकिन पिछले दशक से यह मांग जोरदार तरीके से की जा रही है. 2011 की जनगणना के वक्त लिंगायत समुदाय के संगठनों ने अपने लोगों के बीच यह अभियान चलाया कि वे जनगणना फर्म में अपना जेंडर न लिखें.