Secret of Akharas of Sadhus: 'माघ मकरगत रबि जब होई. तीरथपति हिं आवे सब कोई. ये पौराणिक दोहा बताता है, प्रयागराज को तीरथपति क्यों कहा जाता है. देश के 4 कुंभ पीठों में से इकलौता ऐसा पीठ है, जहां कुंभ, अर्धकुंभ के साथ महाकुंभ का संयोग बनता है. इस दिव्य संयोग में शामिल होने पूरे देश दुनिया से करोड़ों लोग आते हैं. पीएम मोदी ने भी महाकुंभ की शुरुआत से पहले प्रयागराज जाकर कुंभ कलश की पूजा की. आज की स्पेशल रिपोर्ट में हम आपको बताएंगे कि महाकुंभ की धरती से जुड़ी एक ऐसी परंपरा की कथा, जिसके बिना महाकुंभ अधूरा है. वो कथा है, सनातन की धर्म ध्वजा के वाहकों की, इसके रक्षकों की. महाकुंभ में सबसे खास माने जाने वाले अखाड़ों की.


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

सौरमंडल में जब सूर्य के मकर राशि में प्रवेश का योग बनता है, तब सभी दैवीय शक्तियां, धरती के सभी तीर्थ, सभी ऋषि, सभी महाऋषि गंगा-यमुना और सरस्वती के संगम घाट पर खिंचे चले आते हैं. युगों युगों से चले आ रहे इसी दिव्य जमावड़े को कुंभ कहते हैं. कुंभ के खगोलीय योग को कुछ ऐसे समझिए.


वृष राशि में बृहस्पति आए  तो बनता है महाकुंभ का योग!


भगवान शिव ने तो समुद्र मंथन से निकले विष को पीकर दुनिया को बचाया और खुद नीलकंठ हो गए. लेकिन जो अमृत कलश से जो बूंदे गिरी, उसका जश्न शहस्त्राब्दियों बाद भी कुछ ऐसे मनता है. भगवान शिव और सनातन की धर्मध्वजा लिए यहां पधारते हैं 14 सनातनी अखाड़े. महाकुंभ की धरती प्रयागराज पर सनातन की धर्म ध्वजा लहराने लगी है, सभी सनातनी अखाड़ों के शिविर लग चुके हैं, बस 13 जनवरी को महाकुंभ का दिव्य शंख बजने का इंतजार है. 


महाकुंभ का जयघोष ‘यतो धर्मस्ततो जय:


महाकुंभ में धर्मध्वजा का ये सार श्लोक, हमारे देश में न्याय व्यस्था की सबसे ऊंची अदालत सुप्रीम कोर्ट के भी प्रतीक चिन्ह पर अंकित है. इस श्लोक का अर्थ है, जहां धर्म है, वहां विजय निश्चित है. धर्म के इसी मानवीय अर्थ के साथ महाकुंभ में अखाड़ों की धर्म ध्वजाएं लहराती हैं. 


आवाहन अखाड़े के श्रीमहंत भारद्वाज गिरि बताते हैं कि धर्म ध्वजा धर्म का प्रतीक है. ऊंची ध्वजा से ही पता चलता है कि वहां कोई है और वहां खाना पानी सेवा की सुविधा है. जब आस है, तो सांस बढ़ जाती है. 


भारद्वाज गिरि बताते हैं, अखाड़ों की सनातनी परंपरा में धर्म का मानवीय मूल्य यही है, जब तक आस है, तब तक सांस है. वो आवाहन अखाड़े के श्री महंत, यानी मुखिया हैं, वो देश के सबसे पुराने अखाड़ों में से एक है. महाकुंभ में आवाहन अखाड़े के साथ श्री पंचायती निरंजनी अखाड़े की भी धर्म ध्वजा महाकुंभ के आसमान में लहराने लगी है. 


अखाड़ों की पहचान होती है धर्म ध्वजा


ये धर्म ध्वजा अखाड़ों की पहचान होती है. इसी ध्वजा को अखाड़े अपने गुरु का प्रतीक मानते हैं. ध्वजा का वैदिक अर्थ होता है निरंतर गमनशील. अखाड़ों की ध्वजा उनके मान, शक्ति और इष्टदेव का प्रतीक होती है. हर अखाड़े की धर्म ध्वजा 52 हाथ लंबी होती है. ये चार दिशाओं में 4 तानियो पर खड़ी रहती है. हर अखाड़े के ध्वज का रंग अलग अलग होता है, किसी में कई रंग भी होते हैं लेकिन सभी ध्वजाओं में 52 बंध अनिवार्य होते हैं.


अपनी धर्म ध्वजा को कभी झुकने, गिरने नहीं देते अखाड़ों के संन्यासी. इतिहास बताता है, इसकी रक्षा के लिए अपनी जान पर खेल आते हैं. इसीलिए हमने आखाड़ों की रहस्यमयी दुनिया से पहले आपको धर्मध्वजा की अहमियत की जानकारी दी. धऱती पर जबसे कुंभ की ज्ञात परंपरा है, तभी से इस महामेले में अखाड़ों का भी स्थान बेहद खास है. हमारी स्पेशल रिपोर्ट के इस हिस्से में समझिए, ये आखाड़े कैसे बने, कहां से आते हैं और कुंभ के बाद कहां चले जाते हैं.. 


तन-मन से संन्यासी तेवर से सशस्त्र सैनिक!


संन्यासी, जो शास्त्रों के ज्ञाता हैं, वे शस्त्र में भी उतने ही पारंगत हैं! आदि शंकराचार्य के सेवक आखिर कैसे सनातन के रक्षक बन गए? आज भले ही अखाड़ों के संन्यासी वैसे सशस्त्र नहीं दिखते, जैसा इनके इतिहास में दिखता है, लेकिन संन्यासी के रूप में इनकी मूल प्रकृति अभी वही है. 


अखाड़ों से जुड़े इतिहास का ये सिलसिला हमें 400 ईसा पूर्व के इतिहास की तरफ ले जाता है, जो सनातन की धर्म ध्वजा के सबसे बड़े वाहक आदि शंकराचार्य सक्रिय काल है. दरअसल अखाड़ों के निर्माण का श्रेय आदि शंकराचार्य को जाता है.



संवत काल गणना के मुताबिक उनका जन्म 508 ईसा पूर्व में हुआ. आदि शंकराचार्य ने 4 दिशाओं में 4 सनातनी मठ और दसनामी संप्रदाय बनाए. अखाड़ों का निर्माण इन्हीं मठों और सनातनी संप्रदाय की रक्षा के लिए किया गया. अगर आदि शंकराचार्य का सक्रिय काल देखें, तो वो गौतम बुद्ध और जैन धर्म के संस्थापक महावीर के समकालीन है. इस दौर में जैन और बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रचार प्रसार के बीच शंकराचार्य ने सनातन की धर्म ध्वजा बुलंद की.


धर्म रक्षा के लिए संन्यासियों ने लड़े कई युद्ध


उस दौर की जरूरत के मुताबिक धर्म रक्षा के लिए संन्यासियों के एक खास समूह को सशस्त्र ट्रेनिंग दी गई. ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक धर्म रक्षा के लिए इस सशस्त्र समूह ने कई युद्ध भी लड़े. ईसा पूर्व के दौर में इन्हें अखाड़ा नहीं कहा जाता था. क्योंकि उस वक्त अखाड़ा शब्द चलन में नहीं था. संन्यासियों के सशस्त्र समूह को जत्था या पीर कहा जाता था. अखाड़ा शब्द का इस्तेमाल मध्य युग में शुरु हुआ, जब मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत पर हमले शुरू किए.


शुरू में 4 प्रमुख अखाड़े ही बनाए गए थे. बाद में अलग मत के आधार पर 13 अखाड़े बने. 2018 में 14वां अखाड़ा किन्नरों का बना. मुख्य तौर पर अखाड़ों को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है. इनमें पहला है शैव मत, जिसमें 7 अखाड़े आते हैं. दूसरा है वैष्णव मत, जिसमें 3 अखाड़े आते हैं और तीसरा है उदासीन पंथ, जिसमें तीन अखाड़े आते हैं. 


14वां अखाड़ा 2018 में जूना अखाड़े ने किन्नरों को प्रतिनिधित्व देने के मकसद से बनाया था, जो 2019 के अर्धकुंभ से चारों पीठों में शिरकत कर रहा है. इस बार के कुंभ में भी इन्हीं 14 अखाड़ों का जयघोष सुनाई देगा. 


आजादी के बाद त्याग दिया सशस्त्र रूप


आधुनिक इतिहास, यानी देश की आजादी से पहले तक, अखाड़ों के बीच मत बंटवारे के बावजूद, ये सामूहिक रूप से सैन्य तेवर वाले संन्यासी माने जाते थे. राजाओं के बुलावे पर धर्म रक्षा के लिए युद्ध लड़ना, आजादी की लड़ाई में देश भक्तों के साथ सक्रिय रहना. ये सब इस समूह की एक पहचान रही है. 


कुंभ खुद में आजादी की लड़ाई में देश भक्ति के सामूहिक संचार का एक केन्द्र बनता था. लेकिन आजादी के बाद अखाड़ों ने अपने सशस्त्र रूप और तेवर को त्याग दिया. लेकिन इन अखाड़ों में एक पंथ ऐसा है, जो आज भी सैनिकों वाला तेवर रखता है. वो हैं नागा संन्यासी.


शिव और अग्नि के भक्त माने जाते हैं नागा संन्यासी. मुख्य तौर पर नागा परंपरा में संन्यासी पुरुष ही होते हैं, लेकिन अब कुछ महिलाएं भी नागा साधु बनने लगी हैं. हालांकि महिला नागा संन्यासी दिगंबरं की तरह नग्न नहीं रहती, बल्कि भगवा वस्त्र धारण करती हैं. नागाओं की दुनिया में ये नई परंपरा है, मगर नागा साधु बनने की शर्तें वही हैं, जो आदिकाल से चली आ रही है.


कैसे बनते हैं नागा साधु?


नागा साधु बनने की पूरी प्रक्रिया 12 साल की होती है. इसमें पहले का 6 साल संन्यासियों के लिए अहम होता है. इस दौरान संन्यासियों को लंगोट के सिवा कुछ भी इजाजत नहीं होती. शुरुआती दौर में ही इन्हें ब्रह्मचर्य का अभ्यास करना होता है. ब्रह्मचर्य में सफल होने के बाद इन्हें महापुरुष की दीक्षा दी जाती है. इसके बाद यज्ञोपवीत और बिजवान की प्रक्रिया पूरी करनी पड़ती है. बिजवान में संन्यासियों में को अपना श्राद्ध और पिंडदान करना होता है.


2 साल की इस पूरी प्रक्रिया में सफल होने के बाद ही कोई संन्यासी नागा समूह में शामिल होता है. इस के बाद नागाओं को पूरी उम्र कठिन साधना से गुजरना होता है. सर्दी और गर्मी के हिसाब से अपने शरीर को साधना होता है. ये कभी शैय्या पर नहीं सोते, जमीन ही ठिकाना होती है. 


दिन में एक ही बार करना होता है भोजन


खान पान में इन्हें दिन में एक ही बार भोजन करना होता है. इसके लिए अगर भीक्षा मांगनी पड़े, तो एक दिन में नागा साधु सिर्फ 7 घरों से ही भिक्षा मांग सकते हैं. इस रहन सहन से अलग देखें, तो ये समूह स्वभाव से उग्र होता है. एक तरह से ये समूह संत समाज का सैन्य पंथ है यानी युद्ध करने वाला.


इतिहास में ऐसे कई युद्धों का वर्णन मिलता है जिसमें जीत नागा संन्यासियों की वजह से सुनिश्चित हुई. जैसे अहमद शाह अब्दाली का मथुरा-वृन्दावन और गोकुल पर आक्रमण. अब्दाली के सेना के खिलाफ 40 हजार नागा साधुओं मोर्चा संभाला था. इस तरह इन्होंने गोकुल की रक्षा की थी. ऐसे आक्रमण के लिए नागा संन्यासियों को ट्रेनिंग अखाड़ों में ही दी जाती थी. ये अपने अपने अखाड़ों में किसी सैन्य रेजीमेंट की तरह बंटकर रहते हैं. 


ये संन्यासी अपने साथ त्रिशूल, तलवार और भाले हमेशा रखते हैं. देश की आजादी के हालांकि अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया, तब से नागा साधु दर्शन के सनातनी मूल्यों के साथ एक शांत जीवन व्यतीत करते हैं.