नई दिल्ली: इसमें बात में कोई दो राय नहीं है कि पिछले कई सालों में टेक्नोलॉजी के फील्ड में इंसान ने काफी तरक्की की है. इसी आधुनिकता के युग में एक दूसरे से आगे जाने की होड़ में जाने अनजाने में कहीं ना कहीं हमारी प्रकृति का काफी हनन भी हुआ है जिसके चलते हमें कई बार सुंदरता से भरी प्रकृति का विनाशकारी रौद्र रूप भी देखने को मिला है. 


'ग्लोबल वार्मिंग' का खतरा


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प्रकृति के विनाशकारी रूप के उदाहरणों में से एक मिसाल है धरती के वायुमण्डल में  'ओज़ोन परत' (Ozone Layer) में छेद होना. इस अहम लेयर को नुकसान होने का ही तो नतीजा है कि आज धरती पर 'ग्लोबल वार्मिंग' जैसा सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है.


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क्या है ओज़ोन लेयर?


आसान भाषा में समझे तो 'ओज़ोन परत' गैस की एक नाजुक ढाल है जो धरती को सूर्य की पराबैंगनी किरणों (Ultraviolet Rays) के हानिकारक असर से बचाकर ये पृथ्वी पर हमारे जीवन को बचाए रखने में हमारी मदद करती है. अगर 'ओज़ोन परत' गैस की ये ढाल हमारे वायुमंडल की गैसों में मिल जाए तो इंसानों का सांस लेना मुश्किल हो जाएगा.


क्या कहते हैं वैज्ञानिक?


अब वैज्ञानिक भाषा में जानें तो 'ओज़ोन परत' ओज़ोन अणुओं की एक परत है जो हमारी धरती के 20 से 40 किमी के बीच के वायुमंडल के स्ट्रेटोस्फीयर मंडल परत में पाई जाती है. जब सूरज से निकलने वाली पराबैंगनी किरणें ऑक्सीजन परमाणुओं को तोड़ती हैं और ये ऑक्सीजन परमाणु हमारे वायुमंडल में मौजूद ऑक्सीजन के साथ मिल जाते हैं तब इस बॉन्डिंग से 'ओज़ोन अणु' बनते हैं और इसी से 'ओज़ोन परत' वातावरण में बनती है


'ओज़ोन परत' खत्म होने के नुकसान?


सूरज से निकलने वाली पराबैगनी किरणों का लगभग 99% भाग 'ओज़ोन मण्डल' द्वारा सोख लिया जाता है, जिससे धरती पर रहने वाले सभी लोगों समेत पेड़- पौधे तेज तापमान और विकिरण से सुरक्षित बचे हुए हैं. इसीलिए 'ओज़ोन मंडल' या 'ओजोन परत' को धरती का सुरक्षा कवच भी कहते हैं. ज्यादातर वैज्ञानिकों का मानना हैं कि इस 'ओज़ोन परत' के बिना धरती पर जीवन का वजूद समाप्त हो सकता है. इसी 'ओज़ोन परत' के सुरक्षित ना होने से सभी लोगों के जीवन, पौधों और पशुओं के जीवन पर भी बहुत बुरा असर पड़ सकता है यहां तक ​कि पानी के नीचे का जीवन भी खत्म हो सकता है. ओज़ोन परत की कमी से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है. सर्दियों की तुलना में ज्यादा गर्मी होती है जिसे वैज्ञानिक भाषा में 'ग्लोबल वार्मिंग' भी कहते हैं. इसके अलावा 'ओज़ोन परत' की कमी स्वास्थ्य और प्रकृति के लिए भी सबसे बड़ा खतरा बनती जा रही है.


'ओज़ोन परत' खत्म होने के कारण?


आधुनिकता के क्षेत्र में आरामदायक चीजें जैसे फ्रीज, एसी, इलेक्ट्रॉनिक कलपुर्जों की सफाई, आदि में क्लोरो फ्लोरो कार्बन्स (CFC) गैस के इस्तेमाल में लगातार बढ़ोतरी होने से 'ओज़ोन परत' में छेद होने की दर बढ़ रही है. सीएफस. गैस का एक कण ओज़ोन के एक लाख कणों को नष्ट कर देता है जिससे वायुमंडल के ध्रुवीय भागों में 'ओज़ोन परत' बनने की गति धीमी होती जा रही है. इसी धीमी गति के चलते 'ओज़ोन परत' में छेद होना स्वभाविक है जिसके चलते सन् 2006 में अन्टार्कटिका के ऊपर ओज़ोन की परत में 40% की कमी पाई गई थी, जिसे 'ओज़ोन होल' का नाम दिया गया था.


मॉन्ट्रियल में संधि क्या हुआ था?


ओज़ोन परत को बचाने के लिए 46 राष्ट्रों ने मॉन्ट्रियल संधि में हस्ताक्षर किए जो 1 जनवरी 1989 में प्रभावी हुई, हालांकि इसमें अब तक 7 संशोधन हो चुके हैं. ऐसा माना जाता है कि अगर अंतरराष्ट्रीय समझौते का पूरी तरह से पालन हो तो, 2050 तक 'ओज़ोन परत' ठीक होने की पूरी उम्मीद की जा सकती है.



इस संधि में भारत का रोल


इस संधि में भारत भी शामिल था और इसलिए 'ओज़ोन परत' की सुरक्षा के लिए हमारा देश इस परत के विनाशकारी कारकों जैसे सीएफसी, हैलॉन्स, सीटीसी, मिथाईल क्लोरोफॉर्म, मिथाईस ब्रोमाइज और NCFC पर नियंत्रण करने के लिए वैश्विक मसलों पर अपनी हर सहभागिता देता नज़र आया है. भारत ने औषधीय जरूरतों के उपयोगों को छोड़कर सीएफसी, सीडीसी और हेलॉन्स के उत्पादन और उपयोग पर सफलता पूर्वक नियंत्रण कर लिया है. 'ओज़ोन परत' ठीक करने को लेकर इन्हीं उठाए गए महत्वपूर्ण कदमों की वजह से ही आज भारत अपने लक्ष्‍य से आगे चल रहा है.


नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल


सरकार ने मौजूदा ओज़ोन क्षयकारी पदार्थों के उत्पादन, उपभोग और व्यापार पर रोकथाम के लिए 'ओज़ोन क्षयकारी' पदार्थ नियमावली लागू कर दी . प्रोटोकॉल में बताए हुए सभी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए भी भारत ने इस नियमावली में समय-समय पर संशोधन किया है.