आम आदमी पार्टी की स्थापना के 5 साल और दिल्ली में केजरीवाल सरकार के 33 महीने पूरे हो रहे हैं. दिल्ली सरकार के अधिकारों की कानूनी बारीकियों पर सुप्रीम कोर्ट में कई दिनों से सुनवाई हो रही है. सामान्यतः एक मामले में एक वकील की बहस का नियम है पर अजब तौर पर दिल्ली सरकार की तरफ से पी चिदंबरम समेत 5 सीनियर वकील बहस कर चुके हैं. कानून की व्याख्या और अदालतों के जटिल फैसलों से यदि दिल्ली में बदलाव आ जाये तो फिर आप जैसे जनांदोलन की क्या जरूरत थी? 


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

दिल्ली में धुंध का दौर 
आप द्वारा 67 सीटों के ऐतिहासिक बहुमत से सरकार बनाने के बाद सिस्टम बदलने की बजाय दिल्ली की धुंध अब देशव्यापी संकट का सबब बन गई है. इस धुंध में भी सरकारी विज्ञापनों में फोटू के दम पर केजरीवाल जैसे नेता ही प्रदूषण की राजनीति कर सकते हैं. पर असल सवाल यह है कि, मंत्रालयों में कामकाज की कोई भी जवाबदेही लिए बगैर सिर्फ सरकारी विज्ञापनों के दम पर केजरीवाल क्यों 'सिग्नीफिकेंट' बनना चाहते हैं?  


विज्ञापनों से सफलता का झूठा स्वप्नलोक 
आप पार्टी द्वारा 528 करोड़ के सरकारी विज्ञापनों के सालाना बजट से मोहल्ला क्लीनिक और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार, निजी स्कूल और शिक्षा माफिया पर लगाम, सस्ती बिजली जैसी सफलता के बड़े दावे किये जा रहे हैं. फ्री के लॉलीपाप से राजनीति की दुकान चमकाने का खेल तमिलनाडु, यूपी और बिहार जैसे राज्यों में अनेक सालों से चल रहा है. गर्वनेंस को बदलने की बात करने वाले केजरीवाल द्वारा वोट बैंक हासिल करने के लिए जनता को मुफ्तखोरी और सब्सिडी की अफीम पिलाना क्या राष्ट्रीय त्रासदी नहीं है? 


यह भी पढ़ें: क्‍या हम बच्‍चों को उनके सपनों की दुनि‍या सौंप रहे हैं...


सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी नहीं
केजरीवाल द्वारा संघर्ष के दौर के साथियों को छोड़े जाने के साथ, जनता से किये वायदों को तोड़े जाने की लंबी फेहरिस्त है. बच्चों की कसम के बावजूद केजरीवाल ने कांग्रेस के समर्थन से पहले दौर में सरकार बनाकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुहिम को ठप ही कर दिया. दूसरे दौर में आप की सरकार बनने पर विधायक और मंत्रियों ने कार-बंगले लेकर अन्ना हजारे के आदर्शों को भी तिलांजलि दे डाली. भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष के प्रतीक केजरीवाल जब लालू यादव के साथ गलबहियां करने लगे तो 'बदलाव के नायक' से जनता का रहा-सहा 'विश्वास' क्यों न ख़त्म हो?  


यह भी पढ़ें: 'पद्मावती' के बहाने पनपते ढेरों सवाल


बदलाव की बजाय बदले की राजनीति 
सरकारों पर अंकुश लगाने के लिए सशक्त सिविल सोसाइटी की जरूरत होती है, जिसे अन्ना हजारे के आंदोलन से भारत में नया आगाज़ मिला. आरटीआई और लोकपाल की सीढ़ी से राजनीति के शिखर पर पहुंचने वाले केजरीवाल ने गर्वनेंस के बड़े वादे किये, जिन्हें वो पूरा करने में विफल रहे. बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, गरीबी इत्यादि अपराध के प्रमुख कारण हैं, जिनके समाधान की बजाय केजरीवाल ने दिल्ली में 15 लाख सीसीटीवी लगाने जैसे अनेक बचकाने वादे कर दिए. वीपी सिंह जब राजनीति को साफ करने में विफल हो गये तो उन्होंने मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करके समाज में जाति का जहर घोल दिया. उसी तर्ज़ पर केजरीवाल भी राष्ट्रीय राजनीति में आधिपत्‍य जमाने के लिए अवसरवाद और राजनीति के घाघ हथियारों से अराजकता पैदा करने में उतारू हैं. जब आप पार्टी ने अपने दल के भीतर पारदर्शिता और जवाबदेही से तौबा कर लिया है तो फिर उनके नेता देश में बदलाव कैसे लायेंगे?      


असफलता का ठीकरा केंद्र पर क्यों 
संवैधानिक व्यवस्था में अनेक कानून, संघीय व्यवस्था और जटिल नौकरशाही की वजह से भारत में किसी भी सरकार को गवर्नेंस में बदलाव लाना मुश्किल है. केजरीवाल को दिल्ली के अधूरे राज्य का पूरा सच पता था. इसके बावजूद उन्होंने जनता से झूठे चुनावी वादे क्यों किये? दिल्ली में राज्य सरकार, एमसीडी, उपराज्यपाल और केंद्र सरकार की जटिल व्यवस्था के सभी पायदानों पर अधिकार के लिए, केजरीवाल आगे चलकर कहीं देशव्यापी जनादेश की मांग न कर बैठें? इतिहास गवाह है कि सभी प्रकल्पों पर एकाधिकार से व्यवस्था भले न बदले परन्तु तानाशाही का मर्ज जरूर पैदा हो जाता है. देखना यह है कि दिल्ली में धुंध के दौर में देश का इतिहास अब आगे कौन सी करवट बदलेगा? 


(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील और दृष्टि संस्था के राष्ट्रीय निदेशक हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)