नई दिल्ली: अफगानिस्तान दक्षिण-मध्य एशिया का चारों ओर जमीन से घिरा ऐसा देश है जो आधुनिक इतिहास में सबसे ज्यादा समय तक गृहयुद्ध में उलझा रहा. 34 प्रांतों में बंटे अफगानिस्तान का आधिकारिक नाम इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान है. यूरोप और दक्षिण पूर्व एशिया को जमीन से जोड़ने वाला यह देश अपने भौगोलिक दर्रों की वजह से इतिहास में हमेशा दर्ज होता रहा. इन दिनों गृहयुद्ध जैसे हालातों में उलझे अफगानिस्तान के ज्यादातर लोग अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए है और यहां की अर्थव्यवस्था बुरे दौर से गुजर रही है. 


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भौगोलिक स्थिति
अफगानिस्तान पूर्व में ईरान से, उत्तर में तुर्कमेनिस्तान से, उजबेकिस्तान और ताजिकिस्तान से, पश्चिम और दक्षिण में पाकिस्तान से अपनी सीमा साझा करता है. उसका बहुत थोड़ा सा हिस्सा चीन की सीमा से भी लगा है. यह देश चारों ओर जमीन से घिरा है और यहां सबसे नजदीकी समुद्री इलाका ईरान से लगे अरब सागर से लगभग 500 किलोमीटर दूर है. उत्तरी और मध्य अफगानिस्तान की उच्च भूमि का ज्यादातर हिस्सा हिंदुकुश पर्वत श्रृखंला का हिस्सा है. यह पर्वत श्रृंखला यहां के उत्तरी प्रांतों को देश के बाकी हिस्से से अलग करती है जो देश को उत्तरी देशों से सुरक्षा भी प्रदान करती है.


दर्रों ने बनाया अफगानिस्तान को इतिहास में खास
हिंदुकुश पर्वत श्रृंखला देश को तीन हिस्सों में बांटती है- मध्य उच्चभूमि, उत्तरी मैदान और दक्षिण-पश्चिमी पठार. उत्तरी उच्चभूमि में गहरी, संकरी घाटियां हैं. जो खास तरह के लंबे दर्रे बनाती हैं. हिंदूकुश पर्वतों के प्रमुख दर्रे खैबर, गोमल एवं बोलन हैं. ये दर्रे व्यापारियों के लिए खास तरह का रास्ते रहे हैं. प्राचीन काल में इन्हीं दर्रो से होकर यूरोप और मध्य एशिया से विभिन्न आक्रमणकारी भारत तक पहुंचते रहे. अफगानिस्तान का मौसम आमतौर पर शुष्क रहता है जबकि यहां ठंड बहुत ज्यादा पड़ती है. 


जातिगत विविधताओं के साथ एकता में अभाव
यहां की जनसंख्या करीब 3 करोड़ 16 लाख है. इस देश का क्षेत्रफल 652,864 वर्ग किलोमीटर ( 251,827 वर्ग मील) है. यहां बोली जाने वाली प्रमुख भाषा दारी है जो कि अफगानी पारसी भाषा है. इसे यहां के आधे से ज्यादा लोग बोलते हैं. इसके अलावा करीब 35% लोग पश्तो बोलते है. यहां जातीय एकता का अभाव प्रमुखता से दिखाई देता है जो कि देश की प्रमुख समस्याओं की जड़ भी है. यहां की आधे से ज्यादा आबादी (40-60%) पठान है, इसके बाद ताजिक 25-30%, उजबेक 6-9%, हजारा 3-6% और बाकी लोग 10-15% हैं. पाकिस्तान की सीमा के लगे इलाकों में अफरीदी, वजीरी, एवं मांगल आदि पठान जातियाँ रहती हैं.  देश का सबसे बड़ा शहर काबुल है जो देश की राजधानी है. 


संक्षिप्त इतिहास 
अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति इतिहास में उसकी भूमिका प्राचीन काल से ही निर्धारित करती रही है. प्राचीन काल से ही पश्चिम और मध्य एशिया के लोग दक्षिण एशिया पहुंचने के लिए यहां के दर्रों का इस्तेमाल करते थे. 2000 से 500 ईसा पूर्व तक में यहां ईरानी जातियों का शासन था. ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में सिकंदर ने हकमनी साम्राज्य से यहां का शासन छीना था. इसके बाद यूनानी शासक शक, फिर पहली सदी में कुषाणों ने यहां पर शासन किया. पांचवी और छठी सदी में यहां हूणों का वर्चस्चव रहा. सातवीं सदी में इस्लाम का प्रसार यहां पहुंचा. दसवीं सदी के अंत और 11वीं सदी की शुरुआत में महमूद गजनवी ने इस क्षेत्र को अपने साम्राज्य का केंद्र बनाया जो ज्यादा लंबा नहीं टिका. 



13वीं सदी में मंगोल, फिर ताजिकिस्तान के 'कार्त’ ने 15वीं सदी तक यहां राज किया. इसके बाद अगली दो सदी तक अफगानिस्तान के क्षेत्र मुगलों, फारस के शाहों और ईरानियों के कब्जे में रहे. 18वीं सदी में फारस शासक नादिर शाह ने पूरे अफगानिस्तान पर कब्जा किया. जिसके मरने के बाद अफगान सरदारों ने अहमद खां के नेतृत्व में आधुनिक अफगानिस्तान क्षेत्र में दुर्रानी वंश की स्थापना की और पश्तूनों को एक किया. 19वीं सदी में ब्रिटेन का प्रभाव रहा और यहां के शासकों के ब्रिटेन की सेना से दो प्रमुख युद्ध हुए और तीसरा युद्ध 20वी सदी में हुआ. इसी दौरान मशहूर डूरंड रेखा बनी जो ब्रिटेन ने अफगानिस्तान और उसके कब्जे वाले इलाके के बीच बनाई. यही रेखा आज अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच सीमा रेखा है. 1919 में तीसरे अफगान युद्ध के बाद रावलपिंडी संधि होने के बाद आधुनिक अफगानिस्तान में अस्तित्व आया. इसके बाद अमानुल्लाह शाह(1929 तक) और मोहम्मद जहीर शाह ने (1933 से 1963 तक) 40 साल तक शासन किया. 


आधुनिक इतिहास
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अफगानिस्तान पर सोवियत संघ ने अपना प्रभाव बढ़ना शुरू किया. सोवियत संघ का सहयोग मिलने के बाद भी अफगानिस्तान का मजूबत आर्थिक विकास नहीं हो सका. 1970 के दशक में अफगानिस्तान के विदेशी सहयोग में गिरावट आई और 1979 में सोवियत संघ के अफगानिस्तान हमले के बाद अफगानिस्तान लंबे समय तक गृहयुद्ध में उलझा रहा. 1989 में सोवियत विघटन के बाद से रूसी सेना ने अफगानिस्तान को छोड़ दिया, जिसके बाद भी वहां आंतरिक संघर्ष जारी रहा. 


तालिबान का उदय
अफगानिस्तान की राजनीति में उल्लेखनीय परवर्तन 1996 में तालिबान के देश पर कब्जे से हुआ. तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर कट्टर इस्लामी कानून देश में लागू कर दिया. इसके बाद 2001 में अमेरिका ने अफगानिस्तान में सैन्य दखल देते हुए तालिबान को काबुल से बाहर कर दिया और हामिद करजाई देश के प्रमुख बने. 2002 में नाटो ने अफगानिस्तान की सुरक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. 2004 में नया संविधान लागू होने के बाद हामिद करजाई 10 साल तक देश के राष्ट्रपति बने. इस दौरान अमेरिकी सेनाओं ने तालिबान का वचर्स्व खत्म करते हुए उसे काफी कमजोर तो कर दिया, लेकिन उसका प्रभाव पूरी तरह से हटाने में वह नाकाम रहा. 2014 अशरफ गनी देश के राष्ट्रपति चुने गए जिसके साथ ही नाटो ने औपचारिक तौर पर अपने अफगानिस्तान मिशन को खत्म घोषित कर दिया और इस मिशन को अफगानी सेना को सौंप दिया. यहां से देश में आतंकवाद बढ़ गया और तालिबान से संघर्ष भी. हालांकि इस दौरान अमेरिकी सेनाएं अफगानिस्तान से नहीं हटीं. 



अफीम और अफगानिस्तान
अफगानिस्तान में अफीम के उत्पादन ने यहां की आर्थिक के साथ-साथ राजनैतिक हालातों को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है. अफीम के अवैध व्यापार और उत्पादन का तालिबान के उदय तक में बड़ा योगदान रहा है. केवल तालिबान ही नहीं, उसके पहले भी गृह युद्ध में उलझे कई विद्रोही गुट आर्थिक रूप से अफीम के व्यापार पर ही निर्भर रहे हैं. हालात यह हैं अफीम की तस्करी करने वाले और विद्रोहियों में अब अंतर करना भी मुश्किल है. 1980 के दशक में यहां अफीम का उत्पादन बढ़ना शुरू हुआ जिसकी वजह से अफगानिस्तान 1991 तक दुनिया का सबसे ज्यादा अफीम उत्पादन करने वाला देश बना और आज दुनिया की 90% से ज्यादा अफीम पैदा करने वाले देश बन चुका है. अफगानिस्तान के गृहयुद्ध की समस्या का समाधान यहां की अफीम व्यापार से गहराई से जुड़ गई है.


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वर्तमान परिदृश्य
आज भले ही अफगानिस्तान सरकार तालिबान से गृहयुद्ध में उलझी हो, लेकिन अब देश की राजनीति में साल 2018 से खासा बदलाव आया है. अमेरिका अपनी सेना को अफगानिस्तान से वापस बुला रहा है. अमेरिका की तालिबान से शांति की वार्ता हो रही हो है. हालांकि तालिबान अफगानिस्तान सरकार से बातचीत करना नहीं चाहता है. तालिबान भले ही अफगानिस्तान में वह सैन्य ताकत नहीं रहा हो, लेकिन अब वह एक मजबूत राजनैतिक ताकत बनना चाह रहा है. 2004 में नए संविधान लागू होने के बाद बनी सरकार देश की राजधानी के बाहर देश में पूरी तरह से अपना प्रभुत्व बढ़ा कर देश में एकता कायम करने के लिए आज भी संघर्षरत है. तालिबान 2004 में लागू संविधान का नहीं मानता है और वह नया इस्लामिक संविधान चाहता है. वहीं अमेरिका तालिबान को मान्यता देने को तैयार है लेकिन यह नहीं चाहता को वह आतंकवाद को समर्थन देने वाला गुट बना रहे. अमेरिका अफगानिस्तान में सेना छोड़ने से पहले यही सुनिश्चित करना चाहता है.


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भारत और अफगानिस्तान
भारत की अफगानिस्तान नीति स्पष्ट है. भारत अफगानिस्तान मे ऐसी सरकार चाहता है जो आतंकवादियों को समर्थन न करे. इसके अलावा अच्छे संबंध भारत को अफगानिस्तान में बढ़िया निवेश के अवसर देंगे. अफगानिस्तान इस समय गृहयुद्ध में उलझा देश है इसके बावजूद पिछले कुछ सालों में भारत ने अफगानिस्तान को उल्लेखनीय आर्थिक सहायता दी है. अफगानिस्तान के नए संसद भवन को निर्माण भारत ने कराया जो 2015 में पूरा हुआ. इसके अलावा भारत की सहायता से पश्चिम अफगानिस्तान के हेरात इलाके में 1,500 करोड़ रुपए की लागत से बांध बन रहा है.



2015 में ही भारत ने ईरान में चाबहार बंदरगाह में भारी निवेश किया है जिसका उद्देश्य अफगानिस्तान को दुनिया से समुद्री कनेक्टिविटी देना भी है. इससे भारत को अफगानिस्तान से जुड़ने में आसानी होगी और इसके लिए पाकिस्तान पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा. इसके अलावा भारत अफगिनस्तान क्रिकेट टीम का मेजबान देश है. भारत के खिलाफ पहला टेस्ट मैच खेलने के बाद फरवरी में आयरलैंड के साथ तीन टी20, पांच वनडे मैच और एक टेस्ट मैच खेलेगी.