नई दिल्लीः तीनों लोकों में नारायण का नाम जपते-जपते देवर्षि नारद वैकुंठ जा पहुंचे. लेकिन, आज वैकुंठ का सारा चित्र ही बदला हुआ था. शेष शैय्या पर त्रिलोकी के पांव दबाने वाली लक्ष्मी एक ओर खड़ी निहारे जा रही थीं और जिधर वे निहार रहीं थीं, त्रिलोकी उधर ही खड़े होकर कुछ विचार कर रहे थे. 


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वैकुंठ पहुंचे नारद
आज उनके हाथ में न पद्म पुष्प था और न ही शंख और सुदर्शन. कौमुदी गदा भी एक ओर रखी हुई थीं. श्रीहरि के हाथ में आज मोरपंख था जिसे वे रंग में डुबा कर रेशमी कपड़े पर कोई चित्र उकेर रहे थे. 



तल्लीन विष्णु ने नारद की ओर देखा ही नहीं और उनके नारायण-नारायण पर आज कान भी नहीं दिया. उल्टे देवी लक्ष्मी ने मुस्कुरा कर उन्हें इशारा किया कि वे चुप रहें और अनावश्यक शोर न करें. विष्णु का यह व्यवहार नारद को बड़ा अपमानजनक लगा. वे आवेश में विष्णु के समीप गए और पास ही खड़ी देवी लक्ष्मी जी से उन्होंने पूछा,


"आज इतनी तन्मयता के साथ भगवान् किसका चित्र बना रहे हैं ?"


देवर्षि का वैकुंठ में हुआ अपमान
लक्ष्मी ने अपने स्वाभाविक भृकुटी को चंचल बनाकर कहा कि "अपने सबसे बड़े भक्त का, आपसे भी बड़े भक्त का !" एक अपमान से उबर न पाए नारद के भीतर यह वाक्य ऐसा घाव कर गया कि जैसे महादेव ने ही त्रिशूल से सौ बार वार कर दिया हो. 



फिर भी खुद संभालते हुए नारद ने पास जाकर देखा, तो आश्चर्य से भर गए. अचल ध्यानावस्थित विष्णु एक मैले-कुचैले अर्धनग्न मनुष्य का चित्र बना रहे थे.


क्रोधित हो गए नारद
नारदजी का चेहरा क्रोध से तमतमा गया . वे उल्टे पांव भूलोक की ओर चल पड़े. कई दिनों के भ्रमण के बाद उन्हें एक अत्यन्त घिनौनी जगह पर पशु-चर्मों से घिरा एक चर्मकार दिखाई दिया, जो गंदगी और पसीने से लथपथ चमड़ों के ढेर को साफ कर रहा था.


चर्मकार की परीक्षा लेने पहुंचे नारद
पहली नजर में ही नारदजी समझ गए कि देवी लक्ष्मी इसे ही सबसे बड़ा भक्त बता रही थीं. विष्णु इसी का चित्र बना रहे थे. दुर्गंध के कारण नारदजी उसके पास नहीं गए और अदृश्य होकर वे दूर से ही उसकी दिनचर्या देखने लगे. 
दिन बीता, सांझ हुई लेकिन वह चर्मकार न तो मंदिर गया और न प्रार्थना ही की. हरिनाम जाप भी नहीं किया. एकादश अक्षरी मंत्र भी नहीं पढ़ा और न ही नारद की तरह ही एक भी बार नारायण-नारायण कहा. 


देवर्षि को आया क्रोध
यह सब देख नारदजी के क्रोध की सीमा न रही. एक अधमाधम चर्मकार को श्रेष्ठ बताकर उनके प्रभु विष्णु ने उनका कितना घोर अपमान किया है. यह सोचते हुए माया के वशीभूत और अहंकार से प्रेरित नारद अपने ही प्रभु को श्राप देने के लिए तैयार हो गए. उन्होंने मंत्र पढ़कर हाथ उठाया ही था कि देवी लक्ष्मी ने प्रकट होकर उनका हाथ पकड़ लिया और कहा, "देव ! भक्त की उपासना को पूरा तो देख लीजिए. 


भगवान की सच्ची भक्ति का मर्म
तब नारद ने देखा कि, उस चर्मकार ने चमड़ों के ढेर को समेटा. सबको एक गठरी में बांधा. एक कपड़े से शरीर साफ किया और गठरी के सामने ही झुककर विनय से कहने लगा, हे दयानिधि, दया करना. कल भी मुझे ऐसी ही सुमति देना कि आज की तरह ही पसीना बहाकर तेरी दी हुई इस चाकरी में सारा दिन गुजार दूं." देवर्षि नारद ने यह देखा तो पानी-पानी हो गए. 



तब देवी लक्ष्मी ने कहा कि जो भक्त या मानव अपनी आजीविका को ही प्रभु की कृपा मानकर तल्लीन होकर काम करे वही उनको प्रिय होता है. वह उनका हृदय से भक्त न भी हो, लेकिन सत्कर्म करता रहे और उसमें ही आस्था रखे तब भी भगवान की उस पर विशेष कृपा होती है. बस वह घमंड-लालच, घृणा और द्वेष से मुक्त होना चाहिए. 


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आज के लोग लें सबक
आज महामारी के बुरे दौर में जो लोग अन्य लोगों की मजबूरी का फायदा उठाकर धन कमाने में लगे हैं, औऱ फिर बड़े-बड़े अनुष्ठान करते हैं वह इस कथा से सीख सकते हैं कि ईश्वर को ऐसे समर्पण कभी प्रिय नहीं होते हैं. 


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