नई दिल्लीः दैत्यों-दानवों से हजार वर्षों तक चले युद्ध के बाद देवराज इंद्र ने उन पर विजय पाई थी. इस विजय के बाद देवताओं में उत्साह था और दानवों को पाताल लोक की किसी गहराई में जाकर छिपना पड़ा था. इस युद्ध में भले ही श्रीहरि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन देवता इसे भूल चुके थे.  


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स्वर्ग में सिर्फ राग-रंग ही जमने लगा था
उनके तो पैर जमीन पर ही नहीं पड़ते थे. उनके अधिपति इंद्र तो राग रंग में ऐसे डूबे थे कि अब उन्हें पता ही नहीं था कि संसार के लिए भी उनका कुछ दायित्व है. देवताओं की रस मंडली में बैठकर वह केवल मेनका, उर्वशी और अन्य अप्सराओं का नृत्य ही देखते रहते थे. गंधर्व उनके लिए दिन-रात नई-नई राग गाते-बजाते रहते थे और स्वर्ग में वारुणि की तो नदी बहने लगी थी. 


देवराज भूल बैठे थे अपना कर्तव्य
देवराज इंद्र ने भले ही त्रिदेवों (ब्रह्नमा-विष्णु-महेश) के कारण विजय पाई थी, लेकिन विजय का अभिमान ऐसा हो गया कि वह सोच बैठे थे कि अब कोई आक्रमण होगा ही नहीं.



देवगुरु बृहस्पति की चिंता भी यही थी. वह भविष्य की आशंका से कम चिंतित थे, लेकिन वर्तमान में संकट यह था कि राग-रंग में डूबे देवराज ने युद्ध के बाद से ग्रहमंडल की बैठक ही नहीं की थी.


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इंद्र ने टाली बृहस्पति की बात
सप्तऋषियों ने इसके लिए चिंता जताई तो देवगुरु इंद्र को समझाने गए. लेकिन, इंद्र ने उनकी बात की अनसुनी कर दी और कहा कि अब स्वर्ग को किस तरह का भय है देवगुरु? बृहस्पति समझ गए कि देवराज के कान अभी अभिमान से बंद हैं. लेकिन ग्रहमंडल की बैठक नहीं होने से नक्षत्र विधान रुक सकता था. इस चिंता को दूर करने ही देवराज इंद्र से बैठक बुलाने का अनुरोध करने ही ऋषि दुर्वासा सप्तऋषियों के प्रतिनिधि बनकर देवलोक की ओर बढ़े.


इंद्र को समझाने चले ऋषि दुर्वासा
ऋषि दुर्वासा को इंद्र के अभिमान का अंदाजा तो था, लेकिन उन्होंने सोचा कि समझाने पर देवराज जरूर समझेंगे. श्री हरि विष्णु की दी हुई बैजयंती पुष्पों की माला भी साथ ले ली. इसकी सुगंध तीनों लोकों तक फैलती थी और दिव्य ऐसी कि पहनने वाले को सम्मोहित जैसा कर दे.


इंद्र ने ऋषि का कर दिया अपमान
दुर्वासा देवलोक पहुंचे. वहां द्वारपाल ने इंद्र को सूचना दी तो भी ऋषि के स्वागत में कोई द्वार पर नहीं आया. ऋषि इंद्र के मन में जगे अभिमान को समझ गए थे.



वह सभा में पहुंचे तो वहां चारों ओर सर्फ मदिरा के कारण भ्रम का ही वातावरण बना हुआ था. देवराज ने दुर्वासा ऋषि को औपचारिकता में प्रणाम ही किया, लेकिन अपने स्थान से नहीं उठे.  फिर भी ऋषि ने आशीष में हाथ उठाया और अपनी लाई पुष्पमाला भेंटस्वरूप दे दी.


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इंद्र ने दुर्वासा का भी सम्मान नहीं किया
इंद्र मुस्कुराए. उसे महकते हुए कहा- क्या ऋषिवर को यहां सुगंध की कुछ कमी लगी. ऐसा कहकर इन्द्र ने अभिमान में उस पुष्पमाला को ऐरावत के गले में डाल दिया. ऐरावत ने उसे गले से उतारकर अपने पैरों तले रौंद डाला. अपनी भेंट का अपमान देखकर महर्षि दुर्वासा को बहुत क्रोध आया. उन्होंने इन्द्र को लक्ष्मीहीन होने का श्राप दे दिया. 
जिस युद्ध के बाद इंद्र खुद को वैभव संपन्न और बलशाली समझने लगे वह सारा वैभव समुद्र में समा गया. 


ऋषि दुर्वासा ने दिया इंद्र को श्राप
महर्षि दुर्वासा के श्राप के प्रभाव से लक्ष्मीहीन इन्द्र दैत्यों के राजा बलि से युद्ध में हार गए. इसके साथ ही संसार से भी लक्ष्मी समेत सारे वैभव और औषधि लुप्त हो गई. राजा बलि ने तीनों लोकों पर अपना अधिकार कर लिया. इंद्र और देवताओं की दुर्गति हो गई. एक अभिमान ने उन्हें राजा से रंक बना दिया. 


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