नई दिल्ली: एक अपराधी, जिसने 17 साल की उम्र में हत्या करके जुर्म की दुनिया में कदम रखा. वैसे तो वो बेहद गरीब परिवार से था, लेकिन पैसे कमाने के लिए उसने अपराध को ही अपना रास्ता बना लिया और उत्तर प्रदेश का पहला गैंगस्टर बन गया.


25 जनवरी 2005, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश


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यूपी का इलाहाबाद शहर गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज उठा था. बम और कट्टे का इस्तेमाल यहां पर आम है लेकिन ऐसी वारदात इलाहाबाद में ना तो इससे पहले कभी देखी गई थी और ना इसके बाद कभी देखी गई. असलहाधारियों ने अंधाधुंध फायरिंग की, जिसमें तीन लोगों की मौत हुई. इस हत्याकांड का इल्ज़ाम जिन लोगों पर लगा उसमें उस शख़्स का नाम भी शामिल था जिसे इलाहाबाद का ज़र्रा ज़र्रा बखूबी पहचानता था. नाम है अतीक अहमद..


तांगेवाले का ‘मुंडा’, बना सबसे बड़ा गुंडा


बेहद गरीबी में उसका जन्म साल 1962 में हाज़ी फिरोज़ अहमद के घर में हुआ था. देवरिया से रोज़ी रोटी की तलाश में इलाहाबाद आए हाज़ी फिरोज़ को शहर फिरोज़ तांगावाला के नाम से जानता था. अपने बेटे को पढ़ा लिखाकर बड़ा आदमी बनाना चाहते थे, लेकिन पैसे कमाने की हसरत ने उसके बेटे को गुंडा बना दिया और 17 साल की उम्र में अतीक ने हत्या के साथ अपनी आमद पुलिस फाइल में दर्ज कराई.


यूपी का पहला गैंगस्टर


संगम नगरी के पुराने इलाकों में चकिया मोहल्ला में अतीक ने अपना उस्ताद चुना चांद बाबा को और उसी की सरपरस्ती में गुंडई को अंजाम देता रहा. कुछ ही समय चांद बाबा से ज़्यादा नाम अतीक अहमद का होने लगा. अंदाज़ा इसी बात से लगा सकते हैं कि अतीक अहमद को तमगा हासिल है उत्तर प्रदेश का पहला गैंगस्टर होने का. 80 के दशक में यूपी में जगह-जगह युवा गुंडागर्दी में उतर रहे थे, गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही गाजीपुर का मुख़्तार अंसारी, जौनपुर में धनंजय सिंह और ब्रजेश सिंह, इन्हीं में एक था इलाहाबाद का अतीक पहलवान उर्फ अतीक अहमद.


उस समय यूपी के मुख्यमंत्री बने वीर बहादुर सिंह, 1985 में उनकी सरकार बनी और आते के साथ उन्होंने प्रदेश में लागू किया गैंगस्टर एक्ट, और जिस पहले मुल्ज़िम को इस एक्ट के तहत क़ानून के पन्नों में दर्ज किया गया, वो था अतीक अहमद. 1986 में गैंगस्टर एक्ट में पहला मुकदमा अतीक़ अहमद के ख़िलाफ़ लिखा गया.


इलाहाबाद का डॉन


साल 1989 में चांद बाबा की हत्या हो गई. कहने वाले कहते हैं कि अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए अतीक अहमद ने अपने उस्ताद को ठिकाने लगाया और उसकी गद्दी पर सवार होकर इलाहाबाद के अंडरवर्ल्ड पर एक छत्र राज करने लगा. आलम ये था कि कुछ ही समय में अतीक ने अपने वर्चस्व को इतना बढ़ाया कि उसकी गैंग में 120 से भी ज़्यादा शूटर शामिल हो गए और इलाहाबाद में चकिया ही नहीं बल्कि धूमनगंज से लेकर कसारी-मसारी तक और बेली गांव से लेकर मरियाडीह तक आए दिन गोलियां चलने लगीं.


सियासत में एंट्री


आलम ये था कि अतीक अपनी गुंडई के बल पर सब कुछ हासिल कर लेता था, उसके ख़ौफ का राज चलता था और पुलिस की डायरी में वॉन्टेड अतीक ने सियासत का चोला पहनने के लिए साल 1989 में इलाहाबाद पश्चिमी से निर्दलीय चुनाव लड़ा और भारी अंतर से जीत भी दर्ज कर ली. इसके बाद अतीक ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.


सियासी सफर पर निकला एक गुंडा ऐसा नहीं था कि बदल गया था, भले ही वो निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर एक के बाद एक चुनाव जीतता जा रहा था, 1991 और फिर 1993 में जीत दर्ज करने के बाद, समाजवादी पार्टी से नेता जी का हाथ सिर पर आया तो 1996 में साइकिल की सवारी करते हुए अतीक विधानसभा पहुंचा लेकिन फिर सपा से दूरियां बढ़ीं और अतीक ने अपना दल का दामन थाम लिया. अपने बाहुबल पर इतना गुमान हो चला था कि उसने 1999 के चुनाव में अपनी सीट बदल दी और प्रतापगढ़ से ताला चाबी का निशान लिए उतर गया, लेकिन मात खानी पड़ी. हालांकि अपना दल में अध्यक्ष पद हासिल कर चुके अतीक की हसरत सिर्फ विधायक बनने की नहीं थी बल्कि सत्ता को हथियाने की थी.



पॉलिटिकल पावर कायम रखने के लिए साल 2002 में अतीक अहमद ने फिर से शहर पश्चिमी से अपना दल के टिकट पर चुनाव लड़ा और पांचवी बार इसी सीट से विधानसभा के लिए चुना गया. फरवरी 2002 में हुए इस चुनाव में प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी समाजवादी पार्टी जिसने 143 सीटें हासिल कीं लेकिन बहुमत का आंकड़ा नहीं छू सकी, किसी पार्टी के पास बहुमत नहीं था, नतीजा ये हुआ कि सूबे में 3 मार्च 2002 को राष्ट्रपति शासन लग गया.


माया पर मरवाने का इल्ज़ाम


BSP किंग मेकर की भूमिका में थी लेकिन 1995 में मायावती ने मुलायम का साथ छोड़ दिया था, बाद में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के लिए मायावती ने कल्याण सिंह से समझौता किया था लेकिन ये दोस्ती भी ज़्यादा समय तक नहीं चली थी ऐसे में साल 2002 के इस चुनाव के बाद जोड़-तोड़ की सियासत शुरू हुई और 56 दिनों के बाद बीजेपी के समर्थन से 3 मई 2002 को मायावती ने तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.


ये वो दौर था जब बीएसपी-बीजेपी गठबंधन की सरकार बनाने के पहले विनय कटियार ने नारा दिया था हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा विष्णु महेश है. कटियार को बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और माया को मुख्यमंत्री. सीएम बनते ही मायावती ने प्रदेश के बाहुबली नेताओं पर नकेल कसनी शुरू की, इसका परिणाम हुआ कि इलाहाबाद की कचहरी में एक बम ब्लास्ट होता है.



अगस्त 2002 को इलाहाबाद की कचहरी में अतीक अहमद को जेल से पेशी के लिए लाया गया था और तभी अचानक एक ब्लास्ट होता है. अतीक अहमद ने आरोप लगाया कि सूबे की मुखिया और इलाहाबाद का प्रशासन उन्हें जान से मार देना चाहता है और ये हमला उसी की एक बानगी है. बाद में जब जांच हुई तो पुलिस ने रिपोर्ट दिया कि अतीक ने खुद अपने ऊपर हमला करवाया था.


माया गईं और डॉन का डर्टी डांस शुरू


जनवरी, 2003 से ही माया सरकार पर संकट के बादल मंडराने लगे, दरअसल सूबे में बीएसपी की सरकार आने के साथ बाहुबलियों पर कार्रवाई होने लगी थी, मंत्रिमंडल विस्तार में कुंडा से निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को जगह नहीं दी गई. ऐसे में राजा भैया ने सरकार गिराने के लिए 25 अक्टूबर 2002 को निर्दलीय विधायकों का एक गुट बनाकर बैठक की और राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री से माया सरकार को बर्खास्त करने  मांग की. नवम्बर महीने में धनंजय सिंह और रघुराज प्रताप सिंह को गिरफ़्तार कर लिया गया. उधर अतीक अहमद पहले से जेल में ही था.



राजा भैया की वजह से बीजेपी और बीएसपी गठबंधन में पहली दरार पड़ी. मायावती ने राजा भैया पर आतंकवाद निरोधक अधिनियम यानी पोटा के तहत केस लगाया. विनय कटियार ने केस वापस लेने के लिए कहा और मायावती अपने फैसले पर अड़ी रहीं, नतीजा ये हुआ कि बीजेपी से संबंध बिगड़ते चले गए, उधर ताज कॉरिडोर को लेकर भी केंद्र की वाजपेयी सरकार से मायावती सरकार की ठनी हुई थी और 26 अगस्त 2003 को मायावती ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी, सरकार गिर गई.


दिलचस्प बात ये है कि जिस मुलायम सिंह यादव को बीजेपी ने फरवरी 2002 में मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया, अब माया से रिश्ते ख़राब होने पर उसी समाजवादी पार्टी के लिए समर्थन जुटा रही थी, दिलचस्प ये भी है सपा के विरोध में सियासत कर रहे राष्ट्रीय लोक दल के अजित सिंह भी मुलायम को समर्थन दे रहे थे, कल्याण सिंह, जिन्होंने कभी मुलायम को रावण कहा था, वो भी मुलायम के समर्थन में थे और तो और जिस सोनिया गांधी को 1999 में मुलायम ने प्रधानमंत्री बनने से रोका था वो भी मुलायम सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी.


कमल और हाथी का गठबंधन टूटने के बाद मुलायम सिंह यादव जोड़-तोड़ कर सरकार बनाने में सफल हो चुके थे और समाजवादी पार्टी के पावर में आने के साथ जेल में बंद अतीक़ अहमद को उम्मीदें नज़र आने लगीं. उसने फिर नेता जी के दरवाज़े पर दस्तक दी और साल 2004 के लोकसभा चुनाव के लिए इलाहाबाद की फूलपूर सीट से टिकट हासिल कर लिया.


बीजेपी को समाजवादी पार्टी से मदद की उम्मीद थी, लेकिन साइकिल ने कमल का साथ नहीं दिया और मुलायम ने समाजवादी पार्टी के लिए जमकर प्रचार प्रसार किया, नतीजा ये रहा कि साल 2004 के लोकसभा चुनावों में सपा ने सबसे बड़ी जीत हासिल की. 36 सीटों पर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को जीत मिली. जिसमें अतीक अहमद भी शामिल था. जिस सीट की नुमाइंदी कभी पंडित जवाहर लाल नेहरू करते थे, उस सीट से जीतकर अतीक़ अहमद पहली बार संसद पहुंचा.



मुलायम सरकार में अतीक का आतंक


अब तक अतीक अहमद पर जो आरोप लगे थे उनमें 1995 में इलाहाबाद हाईकोर्ट परिसर में एक हत्या का मामला, साल 2001 में अपने राजनीतिक विरोधी जावेद इकबाल उर्फ पप्पू पर जानलेवा हमला, जिसमें जावेद के बॉडीगार्ड की मौत हो गई थी. 2 जुलाई 2001 में अपने पड़ोसी और मुरली मनोहर जोशी के करीबी अशरफ को बीजेपी छोड़ने के लिए धमकी देने का मामला, 19 अक्टूबर 2002 को नसीम अहमद उर्फ नस्सन की हत्या करने का मामला और साल 2004 में बीजेपी नेता अशरफ़ की हत्या का मामला दर्ज था.


जब अतीक सांसद बना उस पर 7 हत्या के मामले, 7 हत्या की कोशिश जैसे 28 संगीन मामले और कुल 131 मामले क़ानून की डायरी में दर्ज थे और अब सूबे में मुलायम सिंह की सरकार थी. कहते हैं कि अतीक अहमद ने सपा सरकार में आतंक मचा दिया था. पुलिस वाले अतीक, उसके भाई अशरफ और उसके गैंग के लोगों के सामने सजदे की शक्ल में खड़े रहते थे. इलाहाबाद का सबसे सनसनीखेज़ हत्याकांड इसी का नतीजा था.



विधायक को दौड़ाकर मारी 19 गोलियां


अतीक अहमद सांसद बन चुका था और इलाहाबाद पश्चिम की सीट खाली हो चुकी थी. अतीक ने इस सीट से अपने भाई खालिद अजीम उर्फ अशरफ को सपा के टिकट पर उतारा, उधर अशरफ के सामने खड़ा हुआ इलाहाबाद का एक और क्रिमिनल राजू पाल. जो कभी रघुराज प्रताप सिंह का ड्राइवर कम शार्प शूटर हुआ करता था. 25 मुकदमों का ठप्पा लिए अमन पाल उर्फ राजू पाल ने बीएसपी के टिकट पर ताल ठोकी थी. कहते हैं कि राजू पाल कभी अतीक के लिए भी काम करता था और अब वो अतीक के वर्चस्व को ही चुनौती दे रहा था. नवम्बर 2004 में उप चुनाव हुए और राजू पाल ने अतीक के भाई अशरफ़ को 50 हज़ार वोटों से हरा दिया.



ये हार अशरफ़ को नागवार गुज़री, कहते हैं कि बदला लेने के लिए जल रहे अशरफ़ ने खाना छोड़ दिया था और फिर 25 जनवरी 2005 को इलाहाबाद शहर गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज उठा. जिस राजू पाल ने चुनावों में नारा दिया था कि “हारेंगे तो बम चलेगी, जीतेंगे तो रम चलेगी” वो इस हमले में मारा गया. राजू पाल को बचाने के लिए उसके साथियों ने पूरी जद्दोजहद की लेकिन इलाहाबाद में सिविल लाइन्स से लेकर धूमनगंज तक पीछा कर के राजू और उसके साथियों पर ताबड़तोड़ गोलियां चलती रहीं, जीवन ज्योति अस्पताल में जब वे पहुंचे तो तीन लोगों की मौत हो चुकी थी जिसमें राजू पाल भी शामिल था. एक चश्मदीद का बयान पढ़िए ख़ुद उस मंज़र को महसूस करिए.


चश्मदीद मूलचंद यादव ने बताया कि “हमने देखा कि विधायक तीन पहिया पर आगे लेटे हुए थे, उनके साथ में बॉडीगार्ड था, और ये लोग पीछे सफेद क्वॉलिस से दो नाली से और राइफल से फ़ायर कर रहे थे. रास्ते में जहां मौक़ा पाते थे, वहां गोली चलाते थे.”


इस घटना में घायल राजूपाल के एक साथी के कंधे का एक हिस्सा ही गोलियों की मार से उड़ गया था और वो शख़्स आज भी अपने बाएं कंधे में वो जख़्म लिए ज़िंदा है. ये पहली मर्तबा नहीं था जब राजूपाल को निशाना बनाया गया था. इससे पहले भी दो बार राजू पाल पर जानलेवा हमला हो चुका था और राजू पाल ने इसका इल्ज़ाम लगाया था अतीक़ अहमद पर


इलाहाबाद में इंतकाम की आग


इसके बाद इलाहाबाद शहर में बसपा समर्थकों का हंगामा शुरू हो गया. राजू पाल के शव को बीच सड़क पर रखकर जो हंगामा शुरू हुआ था उसने कुछ ही समय में हिंसा का रूप ले लिया और पूरे शहर में जहां तहां बसों में पुलिस की जीपों में पुलिस चौकियों में आग लगाई जाने लगी. समाजवादी पार्टी के नेताओं के घर हमला भी किया गया. लोग इसलिए भी नाराज़ थे क्योंकि प्रशासन ने राजू पाल के शव को भीड़ से छीन लिया था और परिवार को न देकर खुद ही आनन-फानन में रात के अंधेरे में अंतिम संस्कार कर दिया था. तीन दिनों तक इलाहाबाद शहर जलता रहा. हंगामा और हिंसा इतनी ज़्यादा थी कि इलाहाबाद से गुज़रने वाले हाईवे को बंद कर दिया गया था.


राजू पाल की बेवा पूजा पाल की एंट्री


राजू पाल इससे पहले एक हमले में घायल हुआ था तो उसकी आंत काटनी पड़ी थी. तब अस्पताल में भर्ती राजू पाल का दिल अस्पताल में साफ सफाई करने वाली पूजा पर आ गया. वो उसे अपने घर लाया और चुनाव जीतने के बाद 17 जनवरी 2005 को उससे शादी कर ली.



8 दिन बाद ही राजू पाल की हत्या कर दी गई. राजू की पत्नी ने धूमनगंज थाने में एफआईआर दर्ज कराई जिसमें नामजद किया अतीक अहमद और उसके छोटे भाई खालिद अजीम उर्फ अशरफ के साथ 11 लोगों को.


घटना के दो दिन बाद ही हत्याकांड में आरोपी अतीक के भाई अशरफ़ को गिरफ़्तार कर लिया गया, लेकिन ये मामला यहीं थमने वाला नहीं था. बीएसपी ने इसे मुद्दा बनाया और हिंसा रुकने के बाद बीएसपी अध्यक्ष मायावती ख़ुद इलाहाबाद पहुंची और कैमरे के सामने नगद रुपए राजू पाल की पत्नी को दिए.



2 लाख रूपए की ये मदद सिर्फ राजू पाल के परिवार को ही नहीं बल्कि उसके साथ मारे गए दो और लोगों और एक व्यक्ति जो हिंसा के दौरान मारा गया था उसे भी दिया और पूरे सूबे में समाजवादी सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाने का ऐलान भी कर दिया.


नई दुल्हन पूजा पाल के हाथों की मेहंदी भी नहीं उतरी थी कि उसके शौहर को मौत के घाट उतार दिया गया था और पूजा को पता था कि अतीक अहमद और उसका भाई इसमें शामिल थे. मायावती ने पूजा को अतीक से बदला लेने का मौक़ा दिया और उप चुनाव में बीएसपी के टिकट पर उसे खालिद अजीम उर्फ अशरफ के सामने खड़ा कर दिया.



पूजा पाल ने अशरफ को कड़ी टक्कर दी, लेकिन इस बार मात नहीं दे सकी. उधर पाल के लिए पूरा परिवार साथ खड़ा हो गया था और खुलेआम अतीक के साथ मुलायम तक पर आरोप लगा रहा था. पूजा पाल की सास ने बयान दिया कि राजू पाल की हत्या में खामोशी से इलाहाबाद के डीएम और एसपी के साथ प्रदेश की मुलायम सरकार भी शामिल थी.


अतीक अहमद के गुनाहों का कच्चा चिट्ठा जानने के लिए इंतजार करिए, ज़ी हिन्दुस्तान की इस खास रिपोर्ट वर्चस्व के चेप्टर-2 का..


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