पटना: बिहार में सियासी उबाल चरम पर है. बिहार में कई बातें पहली बार होती रही हैं. बिहार देश का पहला ऐसा राज्य है जहां कोरोना संक्रमण की चुनौतियों के बीच चुनाव हो रहा है. संक्रमण के कहर से बचते बचाते शांतिपूर्ण सुरक्षित चुनाव करवाना एक बड़ी चुनौती है जिसके लिए प्रशासन पूरी तैयारी में लगा हुआ है.


नामांकन के दौरान सिर्फ 2 लोग साथ


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कोरोना गाइड लाइन को लागू करवाने के लिए हर संभव कोशिश में जुटा है. इसी वजह से नामांकन के दौरान सिर्फ 2 लोगों को साथ ले जाने की अनुमति है. कोरोना काल में लोगों की भीड़ न जुटे, जनता का जमावड़ा न हो और नेता की आवाज, उनकी बात जनता तक पहुंच जाए इसलिए पहली बार बिहार की जनता का सामना वर्चुअल रैली से हो रहा है.


वर्चुअल रैली से तय होगी चुनावी फिज़ा


वर्चुअल रैली वोटर पर कितना असर दिखाएगा और वोट में तब्दील होगा ये तो 10 नंवबर को साफ हो जाएगा. लेकिन जब हम बात पहली बार की कर रहे हैं तो ये भी बता दें कि 1972 के विधानसभा चुनाव में पहली बार ही था कि एक भी महिला उम्मीदवार विधायक नहीं बन पाई थी. यानी 1972 का विधानसभा महिला विहीन रहा था जबकि 45 महिला उम्मीदवारों ने चुनाव मैदान में खम ठोंका था लेकिन जनता ने सभी को नकार दिया था. महिला उम्मीदवारों की हार को लेकर तमाम तथ्य रहे होंगे लेकिन इसके पीछे एक बड़ी वजह सरकार में महिला प्रतिनिधित्व का न होना भी है.


महिला उम्मीदवारों का कितना दमखम?


महिला उम्मीदवारों ने अपना दमखम आजादी के बाद से ही दिखाया है. बिहार में आजादी के बाद पहले विधानसभा चुनाव 1952 से लेकर 1957, 1962, 1967 और 1969 के चुनाव में महिलाएं विधानसभा पहुंचती रही थीं लेकिन 1972 अपने आप में अकेला ऐसा चुनाव था जिसमें एक भी महिला प्रत्याशी चुनाव में जीत दर्ज नहीं करवा पाई थी.


2015 में हुए विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर गौर करे तो बीजेपी ने 15 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया जिसमें से 4 की जीत हुई. आरजेडी ने 10 महिलाओं पर दांव आजमाया तो सभी ने जीत दर्ज करवाई. जेडीयू ने भी 10 को मैदान में उतारा जिसमें से 9 महिला उम्मीदवारों ने जीत का परचम लहाराया. कांग्रेस ने 5 सीटों पर टिकट दिया जिसमें से 4 विजयी हुईं. यानी महिला उम्मीदवारों का प्रदर्शन शानदार रहा. लेकिन जीत के हिसाब से इन महिलाओं को सरकार में भागीदारी निभाने का मौका नहीं मिला.


बिहार में महिलाओं पर भरोसा नहीं?


राजनीतिक जानकारों की माने तो पॉलिटिकल पार्टी महिला उम्मीदवारों पर भरोसा ही नहीं जताती. टिकट बंटवारे में उपेक्षा होती रही है. शायद इसी वजह से आज भी स्वतंत्र तौर पर महिलाओं की उपस्थिति नगण्य है. कुछ एक अपवाद छोड़ दें तो ज्यादातर वही महिलाएं बिहार की राजनीति में जानी जा रही हैं जिनके पति या पिता की विरासत को किसी न किसी अपरिहार्य वजहों से आगे ले जाने की जिम्मेदारी उन्हें दी गई या मिल गई.इससे राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री राबड़ी देवी भी अछूती नहीं है.


इस बार के विधानसभा चुनाव में अभी तक सभी सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा नहीं हो पाई है. लेकिन जल्द ही तस्वीर साफ हो जाएगी कि कितनी महिलाओं को चुनावी समर में उतारा जाएगा. लेकिन ये तो साफ है कि जब तक आधी आबादी को टिकट देने में कंजूसी की जाती रहेगी और मंत्रिमंडल में उन्हें सही प्रतिनिधित्व करने का मौका नहीं दिया जाएगा हालात कमोबेश यही रहेंगे.


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