नई दिल्ली: शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खां (Bismillah Khan) जिनका नाम हमेशा के लिए शहनाई के साथ जुड़ गया. जब उन्होंने दुनिया से विदा लिया तो शहनाई को भी उनके साथ दफन कर दिया गया. जीवन में उन्होंने वो सब पाया जो एक संगीतकार अपनी जिंदगी में पाने की ख्वाहिश रखता है. फिर भी कुछ ऐसी ख्वाहिशें थीं जो उनके साथ खत्म हो गई. चार साल की उम्र से शहनाई बजाने वाले इस कलाकार ने शहनाई को लोक मंगल की ध्वनि बना दिया.


'हमने शुरू नहीं किया'


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बिस्मिल्ला खां का ये मानना था कि शहनाई उन्होंने अपनी मर्जी से शुरू नहीं की उन्हें विरासत में मिली. उनके मामा और उनके नाना कमाल के शहनाई वादक थे. उनके नाना ने शहनाई इसलिए बजाना शुरू किया क्योंकि उन्हें लगा कि दुनिया में गायक भी बहुत हैं, सितार, वीणा वादक भी बहुत हैं बस शहनाई ऐसी है जिसमें किसी ने इतना नाम नहीं कमाया. उनकी दिली ख्वाहिश थी कि वो जिसमें भी रहें वहां वो अकेले ही राज करें. उनके पास राग और सुर का खजाना था बस यहीं से शहनाई की शुरुआत हुई.



बिस्मिल्ला खां ने एक इंटरव्यू के दौरान बताया था कि उनके मामू अली बख्श का ये कहना था कि आप आइए मेरे सामने घंटों सितार बजाइए बस मुझे शहनाई बजाने के लिए बीस मिनट दीजिए फिर देखिए नजारा. साथ ही उस्ताद बिस्मिल्ला खां का मानना था कि खानदान से विरासत में चीजें मिलना जरूरी नहीं है जरूरी है रियाज. रियाज की तीन जगहें सबसे जरूरी हैं पहला मजार, दूसरा कोई मंदिर या शिवाला और तीसरा गंगा घाट.


बनारस के बहुत करीब हैं


बनारस बिस्मिल्ला खां के दिल के बेहद करीब था वो कहते थे कि सब कलाकार सुर चाहते हैं और चाहते हैं की रस पैदा हो. हम बनारस के रहने वाले हैं हमारे पास रस ही रस है. वो बना बनाया रस है जिसको सुबीला बनना है वो बनारस आए गंगा जी के पास बैठे. वो खुद ब खुद सुरीला बन जाएगा. आज भी लोग चना भिगोकर खाते हैं और बोरी बैठकर रियाज करते हैं.


स्कूल से भागे थे


स्कूल बहुत नजदीक था तीन चार मिनट की दूरी पर. रास्ते में छुन्नू खां सुरू बजाते थे. वो बेहद गरीब आदमी थे. उन्हें कोई पूछने वाला नहीं था और अफीम खाते थे. बिस्मिल्ला खां स्कूल जा रहे थे और जब उन्हें बजाते हुए सुना तो वहीं खड़े हो गए. स्कूल टाइम खत्म हो गया और वो खाली सुरू सुनते रहे. फिर घर लौटे तो मामू कहते हैं पढ़ लिए तो वो कहते हैं जी. उसके बाद आठ दिन स्कूल नहीं गए. आठ दिनों तक सुरू ही सुनते रहे.



फिर मास्टर साहब ने घर समाचार भेजा कि लड़का नहीं आ रहा है क्या वजह है? मामू ने बिस्मिल्ला खां से पूछा कि क्या वजह स्कूल नहीं जा रहे हो? तो हमेशा सच बोलने वाले बिस्मिल्ला खां कहते हैं 'छुन्नू खां का सुरू सुनते थे'. बोले- 'अरे बेवकूफ! स्कूल तो जाना चाहिए'. फिर क्या बिस्मिला खां रोज स्कूल जाते थे और वहां से लौटते वक्त दो पैसे की अफीम खरीदकर छुन्नू खां को दे देते. छुन्नू खां कहते 'खुदा तुझको अच्छा रखे! तू आजा बेटा तुझको ही सुनाएंगे'.


सुनते-सुनते बस जाती हैं चीजें


कहते हैं कि उनके बड़े मामू अलग बजाते, मंझले मामू अलग और सबसे छोटे मामू का अलग सुर होता. वो उनके रियाज के बीच आंगन में बैठे कंचे खेलते. भले ही सुर की समझ न हो लेकिन संगीत अंदर तक बसा था इसलिए अपने कंचों की चोट भरी आवाज को उनकी शहनाई के साथ मिला लेते. जिसे देख उनके मामू भी आपस में इशारा कर उनके हुनर की दाद देते. बिस्मिल्ला खां का मानना है कि सुनने से ही बहुत सी चीजें आ जाती हैं. चीजें अंदर बस जाती हैं.


युवा पीढ़ी के लिए


बिस्मिल्ला खां ने युवा पीढ़ी को भी सुर की समझ दी. एक इंटरव्यू में वो कहते हैं कि तुम सुरीले बन जाओ और किसी भी चीज को ले लो अगर वो सुर में है तो लोग सारे राग छोड़ उसी को सुनेंगे. जब तब रियाज नहीं करोगे तब तक आएगा नहीं. मन में हमेशा ये ख्याल होना चाहिए कि ये शाह साहब की मजार है हमें यहीं से मिलेगा (सुर और राग). मन में पक्की आस्था होनी चाहिए. अपनी जिंदगी में इतना सब हासिल करने के बाद जब उनसे पूछा जाता कि क्या अब भी कोई ऐसी चीज है जिसकी आप ख्वाहिश रखते हैं जो आप हासिल करना चाहते हैं, तो उनके मुंह से एक ही बात निकलती कि मालिक हमें और सुरीली शहनाई बजाना सीखा दे.



21 अगस्त 2006 को कार्डिएक अरेस्ट की वजह से उन्होंने हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह दिया. बिस्मिल्ला खां इंडिया गेट पर शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए शहनाई बजाना चाहते थे पर ये ख्वाहिश कभी पूरी न कर पाए. आखिरकार अपनी शहनाई के साथ वो हमेशा के लिए धरती की गोद में चिर निद्रा में लीन हो गए.


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