नई दिल्ली: गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में NRC का मामला उठाया जो फिलहाल कई लोगों के लिए गले की हड्डी बना हुआ है. उन्होंने कहा कि एनआरसी को पूरे देश में लागू किया जाएगा, ताकि भारतीय नागरिकों की असल में पहचान हो सके. किसी भी धर्म या संप्रदाय के लोगों को इससे डरने की जरूरत नहीं है. इसमें किसी प्रकार के भेदभाव का सवाल ही पैदा नहीं होता. एनआरसी से पूरे देश के मूल नागरिकों को एक पहचान मिल सकेगी. 



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क्यों जरूरी है एनआरसी ?


किसी भी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से उस देश के मूल निवासियों की पहचान जरूरी है, अन्यथा चुनी गई सरकार किसके लिए कार्य करेगी. देश की सीमा में अवैध तरीके से घुस आए अप्रवासियों की बढ़ती संख्या धीरे-धीरे परेशानी का सबब बनता जा रहा है, खासकर भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में. वर्तमान में मोदी सरकार इस मामले को लेकर काफी सजग है. सरकार का मानना है कि एनआरसी के आ जाने से कई अधर में लटकी योजनाएं या ग्रसित प्रोग्रामों को भारतीय नागरिकों के पास पहुंचाया जा सकेगा. 


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मूल-निवासियों के अधिकार को ख़तरा



साल 2019 में गैर-कानूनी अप्रवासियों के एक सरकारी आंकड़े के अनुसार देश में तकरीबन 51 लाख अप्रवासी जनसंख्या है, जो साल 2015 में 52.4 लाख थी. देखा जाए तो इसमें 0.4 प्रतिशत की कमी हुई है. इसमें 30 लाख अप्रवासी बांग्लादेश से, 9 लाख पाकिस्तान से, 5 लाख नेपाल से और बाकी अन्य पड़ोसी देशों से भारत में बस गए हैं.  इससे राज्य के स्थानीय लोगों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है. भारतीय संविधान के अनुसार मूल भारतीयों को ही वोट देने का अधिकार प्राप्त है, ऐसे में अप्रवासियों के हाथों में राजनीतिक अधिकार मूल-निवासियों की महत्ता को बौना कर सकता है. शायद यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में मामले पर संज्ञान लेते हुए केन्द्र सरकार और राज्य सरकार को ठोस कदम उठाने के आदेश जारी किए. भाजपा अब इस मामले को अलग-अलग मंचों से उठाती नजर आ रही है. 


अप्रवासियों की पहचान संविधान के अनुरूप


संविधान में निहीत मौलिक अधिकारों पर भी देश के सामान्य नागरिक और अप्रवासियों का एकसमान अधिकार नहीं होता. जैसे कि अनुच्छेद 15,16,19,29 और अनुच्छेद 30 पर अप्रवासियों का अधिकार नहीं है. वहीं, संयुक्त राष्ट्र के संकल्प 106 के तहत शरणार्थी और अप्रवासियों की पहचान भी बहुत जरूरी है ताकि उन्हें प्राकृतिक अधिकार और मानवाधिकार से वंचित न किया जा सके. इनकी पहचान इसलिए भी जरूरी है कि आखिर इनकी संख्या कितनी है और इनके लिए क्या अनुकूल व्यवस्था की जाए. देश निकाला कर अप्रवासियों को उनके हाल पर छोड़ देना बेहतर चुनाव नहीं हो सकता.


पहचान नहीं किया तो आगे छिड़ सकता है गृह युद्ध



दरअसल, 1971 में पाकिस्तान से बांग्लादेश के विभाजन के बाद, भारत में घुस आए अप्रवासियों की जनसंख्या और इनकी वजह से उत्पन्न होने वाली समस्याएं बहुत तेजी से बढ़ी. उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के सीमित संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव पड़ने लगा। त्रिपुरा, अरूणाचल, असम, मिजोरम और पश्चिम बंगाल में अब इसका असर साफ नजर आने लगा है, जहां मूल-निवासी ही अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं, और तो और सरकारी अनुदान और सुविधाओं से वंचित रह जा रहे हैं। त्रिपुरा की कुल आबादी में 30 प्रतिॆशत, अरूणाचल में आधे से थोड़ा अधिक ही मूल-निवासियों की संख्या रह गई है। यानी कि अप्रवासी ही बहुसंख्यक बन बैठे हैं। ऐसे में उन क्षेत्रों में गृह युद्ध जैसे हालात भी उत्पन्न होने की संभावना बढ़ सकती है। ये समस्या श्रीलंका की स्याह सिंहली-तमिल आंतरिक कलह और सीरिया के गृह युद्ध जैसी न बन जाए, उससे पहले इसका समाधान निकाला जाना बहुत जरूरी है।