नई दिल्लीः उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव की तपिश अब बढ़ने लगी है. सियासत की गर्मी अब देश के कई नेताओं के माथे पर सिकन लाने लगी है. यूं तो देश में हर साल किसी न किसी कोने में चुनाव होते हैं, लेकिन जब बात यूपी की होती है तो कहानियां कुछ और ही अंदाज में नजर आती हैं. क्योंकि इस सूबे की सियासत दिल्ली की कुर्सी की सबसे मजबूत कील रही है.


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सबसे ज्यादा आबादी वाले इस राज्य की राजनीति जितनी अलग, अहम और असरदार है उतनी ही उलझी, मजेदार और हैरत भरी रही है उन नेताओं की कहानी जिसने हमेशा हमेशा के लिए इस राज्य की सूरत बदलकर रख दी. आज इस सीरीज में बात उस महिला नेता की जिसने 21 साल की उम्र में देश के सबसे बड़े नेता की सार्वजनिक मंच से बोलती बंद कर दी थी. जिसे उसके पिता ने घर से बाहर निकाल दिया था. जिसके बारे में पूर्व पीएम नरसिंह राव का कहना था कि वह भारत के लोकतंत्र का सबसे बड़ी चमत्कार है. ये कहानी है देश की सबसे बड़ी दलित नेता मायावती की.


वो एक शाम जिसने बदल दी मायावती की किस्मत
सियासत में सही वक्त की काफी अहमियत होती है. जो वक्त को भुना लेता है सियासत में उसका कद और रुतबा दोनों बढ़ता है. ये बात मायावती को शायद बहुत जल्द ही समझ आ गई थी. वो दौरा था 1977 का. यानी देश की राजनीति का वो पल जब आपातकाल की बेड़ियां खुल गई थी और राजनीति में तमाम बदलावों की गुंजाइश दिख रही थी.



इन्हीं दिनों दिल्ली में उस वक्त के राजनीतिक हीरो राजनारायण एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे. वो अपने संबोधन में बार बार हरिजन शब्द का इस्तेमाल कर रहे थे. सभा मौन थी क्योंकि मंच पर देश की उस वक्त की सबसे बड़ी आवाज राजनारायण बोल रहे थे. लेकिन इस चुप्पी में एक 21 साल की लड़की के चेहरे पर गुस्सा था.


वो लड़की जब मंच पर बोलने के लिए चढ़ी तो फिर सारी सभा हैरान रह गई. मायावती ने राजनारायण को जमकर कोसा. यहां तक कहा कि आपकी हिम्मत कैसे हुई हरिजन हरिजन शब्द दोहराने की. बस फिर क्या था मंच से नीचे जब मायावती उतरीं तो बधाइयों का ताता लग गया. बस वहीं मौजूद कई दलित नेताओं को लग गया कि ये लड़की अब देश की आवाज बन सकती है. फिर ये खबर उस शख्स तक पहुंची जिसे दलित हीरो समझा जाता था. नाम था कांशीराम.


कांशीराम पहुंच गए घर
पंजाब के होशियारपुर के रहने वाले कांशीराम तबतक दिल्ली में अपनी जड़े लगभग जमा चुके थे. पंजाब में उनका सियासी रुख दिखने लगा था. लेकिन यूपी उनके लिए दूर की कौड़ी साबित हो रही थी. क्योंकि कांशीराम पंजाब से थे. उन्हें तलाश ऐसे चेहरे की थी जो बेझिझक हो. अब उन्हें मायावती के रूप में अपना चंद्रगुप्त दिखने लगा था.



फिर क्या था वो मायावती से मिलने उनके घर पहुंच गए. मायावती से पूछा तो उन्होंने कहा कि उनका सपना आईएएस बनने का है. कांशी राम बोले तुम गलत तरीके से सोच रही हो. तुम मेरे साथ आ जाओ मैं तुम्हें उस ऊंचाई पर पहुंचा दूंगा जहां सैकड़ो आईएएस तुम्हारे हुक्म की तामील करते नजर आएंगे. ये बात मायावती को जम गई.


पिता ने घर से निकाला
मायावती ने तो अपना इरादा बना लिया था. लेकिन उनके पिता को मायावती का ये कदम रास नहीं आया. उन्होंने मायावती के सामने शर्त रखी. या तो घर छोड़ दो या फिर राजनीति. इस बार मायावती का इरादा पक्का था. उन्होंने कुछ नहीं सोचा. अपना सामान पैक किया और अपने रास्ते पर निकल पड़ी. फिर मायावती ने जो रास्ता चुना था उसने उन्हें सिर्फ मंजिल तक नहीं पहुंचाया बल्कि मायावती ने देश की सियासत को ही बदलकर रख दिया.


हार पर हार पर मजबूत होते रहे इरादे
1984 में जब बहुसजन समाज पार्टी बनी तो मायावती ने यूपी के कैराना से पहला चुनाव लड़ीं. लेकिन उन्हें इस चुनाव में सिर्फ 44 हजार वोट मिले और वो तीसरे नंबर पर रहीं. लेकिन हार ने उन्हें और मजबूत बनाया. 1985 में बिजनौर में उपचुनाव हुए तो फिर मायावती ने ताल ठोकी और फिर हारी 1987 में हरिद्वार में उपचुनाव में फिर वो हारी लेकिन लगातार तीन हार के बाद उन्हें इसका इनाम मिला 1989 में हुए लोकसभा चुनाव में. जब देश में बीपी सिंह की लहर थी उस लहर में बिजनौर की सीट से पहली बार मायावती ने जीत हासिल की. बसपा की पहली सांसद मायवती. फिर उसके बाद का इतिहास सारा देश जानता है.


पहली महिला दलित सीएम
1994 में वह बीएसपी से ही राज्यसभा सांसद चुनी गई. इसके बाद 1995 में वह पहली दलित महिला के रूप में यूपी की मुख्यमंत्री बनी.



इसके बाद भी वह 1997, 2002 और 2003 में भी वह कुछ समय के सीएम बनी. 15 दिसंबर 2001 को कांशीराम ने मायावती को बीएसपी प्रमुख के तौर पर घोषित किया. इसके बाद वह लगातार 2003, 2006 और 2014 में लगातार बीएसपी के अध्यक्ष के रूप में निर्विरोध चुनी गई. आज भी वह बीएसपी की अध्यक्ष हैं.


कांशीराम से भी आगे निकल गईं मायावती
ये सच बात है कि पूरे देश में पंजाब ऐसा राज्य है जहां दलितों की आबादी का प्रतिशत सबसे ज्यादा है. पूरे राज्य की करीब 32 फीसदी आबादी दलित है. अब इस संख्या को आप सियासत की कसौटी पर उतारें तो लगेगा की 32 फीसदी वोट अगर किसी भी एक पार्टी को मिलें तो ये तय है कि राज्य में सरकार उसी की बनेगी. लेकिन इसी पंजाब के कांशीराम कभी यहां के दलितों को लामबंद नहीं कर सके थे.



इसके उलट मायवती ने अपने राजनीतिक कौशल से यूपी में कई सालों तक सत्ता का स्वाद चखा. हालांकि, पिछले कुछ समय से मायावती का सियासी जादू काम नहीं आ रहा है और बीएसपी को लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में हार का सामना करना पड़ रहा है. लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का आज भी ये मानना है कि दलित वोटबैंक में आज भी मायावती का जादू बरकरार है भले ही वो सीटों में बदलता नजर न आ रहा हो.


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