नई दिल्ली. लोकसभा चुनाव में संख्या के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेस को माना जाता है क्योंकि यहां से चुनकर 80 सांसद लोकसभा में पहुंचते हैं. राज्य में सक्रिय हर पार्टी चाहती है कि वह अधिक से  अधिक सीट जीतकर लोकसभा में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराए. बीते दो लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 'अभूतपूर्व' प्रदर्शन किया है. 2014 में बीजेपी के खाते में 71 सीट आई थी तो सहयोगी अपना दल ने 2 सीटों पर जीत दर्ज की थी. 73 सीटों पर एनडीए की जीत ने सबको 'हैरत' में भी डाल दिया था. राज्य में मजबूत दावेदार सपा के खाते में सिर्फ 5 सीटें आईं तो कांग्रेस को दो सीट मिली. 


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बना था 'अप्रत्याशित' गठबंधन
2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए को हराने के लिए यूपी में एक 'अप्रत्याशित' गठबंधन बना. यूपी की राजनीति में चिर प्रतिद्वंद्वी रहे सपा और बसपा इस चुनाव में एक साथ आ गए. राष्ट्रीय लोकदल में इस गठबंधन के साथ था. चुनाव से पहले राजनीतिक पंडितों ने इस गठबंधन को लेकर कई भविष्यवाणियां की और यह भी कहा कि ये बहुत बड़ा गेमचेंजर साबित हो सकता है. 


नतीजों में कम हुई थीं बीजेपी की 9 सीटें
जब चुनाव के नतीजे आए तो एनडीए को कोई बहुत बड़ा झटका नहीं लगा था. लेकिन फिर उसकी सीटें कम हुई थीं. राज्य में बीजेपी की कुल 9 सीटें कम हुई थीं. तो 2019 के चुनाव में एनडीए के खाते में 64 सीटें आईं. बीजेपी को 62 तो अपना दल 2 सीटें मिलीं. दूसरी तरफ सपा को कोई फायदा नहीं हुआ और उसके 5 कैंडिडेट ही जीते लेकिन बसपा के 10 प्रत्याशियों की चुनावी जीत हुई. रालोद किसी भी सीट पर जीत नहीं दर्ज कर सकी. 


संख्याबल के लिहाज से दिया था 'संदेश'
कुल मिलाकर सपा-बसपा और रालोद के महागठबंधन के पास 15 सांसद थे. ये संख्याबल उस समय एनडीए की संख्या के आगे तो काफी कम दिख रहा था लेकिन अगर इसे देश की राजनीति में विपक्ष की संख्या के हिसाब से देखें तो बेहतर स्थिति थी. इस महागठबंधन के सूत्रधार के रूप में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को देखा गया. उन्होंने ही मायावती से बातचीत कर बसपा को गठबंधन के लिए राजी किया और रालोद भी उनके साथ था. 


अगर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो महागठबंधन ने एनडीए की सीटें कम करने के लिहाज से संदेश दे दिया था. लेकिन अब जबकि 2024 का लोकसभा चुनाव नजदीक है तो अखिलेश यादव के साथ इस बार सिर्फ कांग्रेस पार्टी है. बसपा और अब रालोद जैसे दल उसका साथ छोड़ चुके हैं. बसपा ने काफी पहले ही छोड़ दिया था. इतना ही नहीं महागठबंधन से हटने के बाद मायावती सपा पर निशाना भी साधती रही हैं. 


इस बार अखिलेश के सामने है 'बड़ी चुनौती'
इस बार भी लोकसभा चुनाव में सीट शेयरिंग को लेकर अखिलेश यादव की कांग्रेस के साथ कोई बात अब तक फाइनल नहीं हुई है. दूसरी तरफ रालोद के भी गठबंधन छोड़ने के पीछे एक चर्चा सीट शेयरिंग को लेकर भी है. 2019 में बसपा और रालोद के साथ मिलकर सपा के पास कुल वोट का 39.23% हिस्सा था. सिर्फ सपा के वोट की बात करें तो उसे 19.43% वोट हासिल किए थे. वहीं कांग्रेस ने 6.36% वोट हासिल किए थे. दूसरी तरफ से एनडीए के पास 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट थे. वो भी तब जब रालोद उसके साथ नहीं था. ऐसे में इस बार के लोकसभा चुनाव में देखना होगा कि बीते दो चुनाव से 5 सीटों पर अटकी समाजवादी पार्टी अपने नंबर कितने बढ़ा पाती है. कांग्रेस के साथ उसका गठबंधन कितनी सीटों पर होगा? वहीं अखिलेश के भी नेतृत्व की परीक्षा है कि वो अपनी पार्टी की सीटों में कितना इजाफा कर पाते हैं? 


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