नई दिल्ली: ये साल 1919 था जब अंग्रेजी हुकूमत ने भारतीयों को सत्ता में शामिल करने का निर्णय लिया और मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार लाया गया. यहीं से हिन्दुस्तान की सियासत में जातीय जहर ने एंट्री मारी और आगे चलकर सियासी दलों की सियासत का अहम हिस्सा बन गई.


पुराने फॉर्मूले को अपनाने की कोशिश


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इसी राजनीतिक हथियार का इस्तेमाल कर के 2007 में मायावती ने ब्राह्मणों और दलितों के गठजोड़ से सत्ता की कुर्सी हासिल की और साल 2012 में मुलायम सिंह ने ब्राह्मणों के साथ-साथ मुस्लिम और पिछड़ों का वोट हासिल कर बेटे अखिलेश को पहली बार सीएम बना दिया. अब बुआ और बबुआ दोनों उसी फॉर्मूले को एक बार फिर लेकर आएं हैं और सवर्णों को खुश करने की कोशिश में जुटे हैं.


यही उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की सियासत की बदलती तस्वीर है. ये योगी का इफेक्ट है, ये बीजेपी की रणनीति का वो हिस्सा है जिसमें विरोधी कमल के पिच पर ही खेलने चले आते हैं और हारकर वापस चले जाते हैं.


जब BJP का वोटर माना जाता था सवर्ण


एक समय था जब माना जाता था कि राजपूत, भूमिहार ब्राह्मण और अपर कास्ट बीजेपी का मतदाता है, वहीं यादव समाज, मुस्लिम और पिछड़े तबके को समाजवादी पार्टी का वोटर माना जाता था और दलितों को तो मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी का समर्थक माना जाता था लेकिन बीजेपी ने 2017 में सबका सफाया किया तो एसपी और बीएसपी अपने राजनीतिक धरातल को खिसकता हुआ महसूस करने लगे और कांग्रेस तो उत्तर प्रदेश की सियासत में हाशिये पर चली गई.


कहने का मतलब मोदी की लहर में जातियों का जोर नहीं चला और बीजेपी ने जाति के आधार पर सियासत करने वाले इन दलों की हवा निकाल दी. यही वजह है कि आज ये पार्टियां ना सिर्फ अपने परम्परागत वोट बैंक को साथ लेकन चलने में लगी हैं बल्कि बीजेपी के परम्परागत वोट बैंक को चोट पहुंचाने के लिए चक्रव्यूह तैयार कर रही हैं.


बुआ और बबुआ का योगी के खिलाफ चक्रव्यूह


योगी के खिलाफ चक्रव्यूह तैयार करने के लिए बुआ और बबुआ जरूर इस बार अलग-अलग युद्ध लड़ रहे हैं, लेकिन दोनों की रणनीति का पैटर्न एक जैसा है. दोनों सवर्णों को आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं. जबकि उन्हें नहीं पता कि वे योगी के टर्फ पर ही खेल रहे हैं. 


सियासत को समझिए जो अब तक खुद को हिन्दू बताने से कतराते थे वो मोदी की लहर में राम का नाम लेने लगे. खुद को जनेऊ धारी बताने लगे. हिन्दुत्व को लेकर बीजेपी को कठघरे में खड़ा करने वाली पार्टियों को खुद को हिन्दू साबित करने की दरकार हो गई.


यही भारतीय जनता पार्टी की सियासी रणनीति का सबसे बड़ा हिस्सा है. देश की सियासत का मिजाज बदलने वाली इस रणनीति में फंसकर कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी. ममता दीदी को बंगाल में सीटें गंवानी पड़ीं और अब कुछ ऐसा ही सियासी परिवर्तन यूपी में होने लगा है.


योगी आदित्यनाथ के पिच पर खेल रही हैं माया?


अयोध्या से शुरू हुआ बहुजन समाज पार्टी का ब्राह्मण सम्मेलन गौतमबुद्ध नगर तक पहुंच गया. मायावती योगी आदित्यनाथ के बनाए पिच पर खेल रही हैं, ठीक उसी तरह से जैसे बाकी राज्यों में भी बीजेपी ने विरोधी दलों को उनकी पिच पर खेलने के लिए मजबूर किया और सियासी दांव में चित किया.


अब वक्त में थोड़ा पीछे चलिए. अखिलेश यादव काम बोलता है का नारा लगा रहे थे. यूपी के दो लड़के एक साथ आ गए थे और प्रदेश को संदेश दे रहे थे कि उत्तर प्रदेश को ये साथ पसंद है.


लक्ष्मी कांत बाजपेयी को क्यों हटाया था?


उसी समय में बीजेपी अपनी रणनीति बना रही थी और अपनी पार्टी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष और ब्राह्मण चेहरा लक्ष्मी कांत बाजपेयी को हटाकर संगठन का जिम्मा कुर्मी समाज से आने वाले केशव प्रसाद मौर्या को दिया और जब चुनाव में जीत मिली तो क्षत्रिय समाज से आने वाले योगी आदित्यनाथ को प्रदेश की कमान सौंप दी, साथ में डिप्टी सीएम के पद पर एक ब्राह्मण चेहरा और एक ओबीसी चेहरे को तैनात कर दिया. जाहिर है इस रणनीति ने दूसरी पार्टियों को चुनाव के बाद भी झंकझोर दिया था


ब्राह्मणों और ठाकुरों को रिझाने की कोशिश


जो बीएसपी 2012 के बाद से सत्ता सुख से बेदखल है और जिसके लिए यूपी में सियासी जमीन को बचाने की चुनौती है, वो हर एक खेल खेल लेना चाहती है. यही वजह है कि मौजूदा वक्त में ब्राह्मणों और ठाकुरों को रिझाने की पूरी कोशिश हो रही है.


बीएसपी दलितों की सियासत कर रही थी लेकिन वहां भी बीजेपी ने सेंध लगाई तो पहले ब्राह्मणों को अपने खेमे में लेने के लिए मायावती ने अपने ब्राह्मण सिपेहसालार सतीश चंद्र मिश्रा को मैदान में उतारा तो अब ठाकुरों को पाले में लाने के लिए भी ऐसे ठाकुर सम्मेलन का भी आयोजन करने जा रही है, लेकिन क्या यूपी का वोटर हर वक्त रंग बदलने वाले हाथी को भूल जाएगा.


ये वही मायावती हैं जिन्होंने सत्ता का शिखर हासिल करने के लिए हर बार पाला बदला और हर बार अपना नारा भी बदला. कभी 'चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर..' कभी 'तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार..' कभी 'मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम!' और 'कभी दलित,ब्राह्मण, यादव मुस्लिम का भाईचारा, इसके आगे हर कोई हारा..' सवाल है कि क्या बदलती माया में जनता अपना मन बदल पाएगी.


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