नई दिल्ली: ‘लिविंग विल’ पर दिशानिर्देशों को अधिक व्यावहारिक और कम बोझिल बनाने के लिए, उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को उस शर्त को हटा दिया, जिसमें एक गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति का ‘लाइफ सपोर्ट’ हटाने या बनाये रखने के लिए किसी मजिस्ट्रेट की मंजूरी अनिवार्य है. 


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साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया था ऐतिहासिक फैसला


‘लिविंग विल’ किसी गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति के अंतिम समय तक किये जाने वाले उपचार पर अग्रिम चिकित्सा दिशानिर्देश होता है. निष्क्रिय इच्छा मृत्यु पर उच्चतम न्यायालय के 2018 के आदेश में गरिमा के साथ मृत्यु के अधिकार को एक मौलिक अधिकार और अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) के एक पहलू के रूप में मान्यता दी गई थी, इसके बावजूद, ‘लिविंग विल’ के लिए पंजीकरण कराने के इच्छुक लोगों को बोझिल दिशानिर्देशों के कारण समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था और इसलिए उच्चतम न्यायालय ने इस पर पुनर्विचार किया. 


न्यायमूर्ति के एम जोसफ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि अब दस्तावेज पर ‘लिविंग विल’ को लागू करने वाले व्यक्ति को दो चश्मदीदों की मौजूदगी में दस्तखत करने होंगे और इसे किसी राजपत्रित अधिकारी या नोटरी की उपस्थिति में सत्यापित करना होगा. 


पीठ ने कहा- 'गवाहों और नोटरी को लेकर इस बात का रखना होगा ध्यान'


न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस, न्यायमूर्ति ऋषिकेष रॉय और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार भी पीठ में शामिल रहे. पीठ ने कहा, ‘‘गवाह और नोटरी इस बात पर संतोष प्रकट करेंगे कि दस्तावेज को स्वेच्छा से जारी किया गया है और इसमें किसी तरह की विवशता या मजबूरी नहीं है और सभी प्रासंगिक जानकारी एवं निष्कर्षों को समझते हुए ऐसा किया गया है.’’ शीर्ष अदालत के 2018 के फैसले के अनुसार ‘लिविंग विल’ पर दो गवाहों और किसी प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में हस्ताक्षर करने होते थे. 


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