नयी दिल्ली: एक जमाना वह भी था जब चाय इतनी बेशकीमती चीज मानी जाती थी कि इंग्लैंड की महारानी कैथरीन ऑफ ब्रिगेंजा अपने दहेज में चाय के चीन से आयातित डिब्बे लेकर आई थीं और उसके बाद ही चाय इंग्लैंड में लोकप्रिय हुई. इसके बाद भारत के असम प्रांत के चाय बागानों में कैसे चाय के पौधे की मौजूदगी का पता चला और पहली बार असम की चाय कैसे इंग्लैंड पहुंची. इन्हीं सब रोचक किस्सों को अपने में समेटे हुए है ‘अ सिप इन टाइम’.


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असम में चाय की मौजूदगी का पता चला
किताब में सर पर्सिवल ग्रिफिथ की किताब ‘द हिस्ट्री ऑफ द इंडियन टी इंडस्ट्री' के हवाले से लिखा गया है कि रॉबर्ट ब्रूस एक साहसी कारोबारी था जो कारोबार के सिलसिले में ऊपरी असम तक जा पहुंचा. वहां वह ईस्ट इंडिया कंपनी की अनुमति से एक स्थानीय प्रमुख पुरंधर सिंह का एजेंट बन गया. कंपनी ऊपरी असम पर नियंत्रण हासिल करने के संघर्ष में पुरंधर सिंह का साथ दे रही थी. यहीं पर 1823 में रॉबर्ट ब्रूस को असम में चाय की मौजूदगी का पता चला और उसने चाय का एक पौधा और उसके कुछ बीज हासिल करने के लिए सिंगफो कबीले के प्रमुख के साथ एक समझौता किया.


चाय के पौधे और बीज हाथ लगे
लेकिन जैसा कि जैफ कोह्लर ने अपनी किताब 'दार्जिलिंग : अ हिस्ट्री आफ द वर्ल्ड्स ग्रेटेस्ट टी' में लिखा है कि दो घटनाएं इस दिशा में परिवर्तनकारी साबित हुईं. बंगाल तोपखाने में तब तक मेजर का पद हासिल कर चुके ब्रूस की 1824 में पहले एंग्लो. बर्मा युद्ध में मौत हो गई. उनके छोटे भाई एलेक्जेंडर ब्रूस के हाथ वे चाय के पौधे और बीज लग गए जिन्हें उसने जून 1825 में असम में ईस्ट इंडिया कंपनी को भेज दिया. कंपनी ने जांच के लिए इन बीजों को अपने बॉटनिकल गार्डन में भेजा लेकिन इन्हें यह कहते हुए चाय के बीज मानने से इनकार कर दिया कि ये कैमिलिया सिनेन्सिस प्रजाति से ताल्लुक नहीं रखते और उनकी यह कहानी यहीं खत्म हो गई.


लेकिन मेजर ब्रूस चाय की खोज में ऊपरी असम इसलिए गए थे क्योंकि इंग्लैंड चाय का दीवाना था और उन्हें इसमें व्यापक कारोबारी संभावनाएं नजर आई थीं.


किताब के अनुसार, इंग्लैंड में सबसे पहले चाय 1662 में चार्ल्स द्वितीय और पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन ऑफ ब्रिगेंजा के विवाह के अवसर पर पेश की गई थी. कैथरीन चाय की शौकीन थी और वह दहेज में बांबे के सात द्वीप जो उस समय पुर्तगाल के उपनिवेश थे, तथा चीन से आयातित चाय के बक्से लेकर आयी थीं. उन्होंने ही दरबार में सबसे पहले चाय पेश करवाई और जल्द ही यह लोकप्रिय हो गई.’’


अनुकूल जमीन की तलाश शुरू
उस समय इंग्लैंड चीन से अपनी चाय आयात करने लगा लेकिन चीन की कारोबारी नीतियां काफी सख्त थीं और वह चाय के निर्यात के बदले में केवल स्पैनिश सिल्वर की मांग करता था. इससे जल्द ही इंग्लैंड का चांदी का भंडार खत्म होने लगा.


‘ अ सिप इन टाइम ’ के अनुसार, ‘‘इसका नतीजा यह हुआ कि इंग्लैंड ने चाय उगाने के लिए अनुकूल जमीन की तलाश शुरू कर दी. 1883 में ब्रिटिश कब्जे के अधीन भारत के पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक के तहत भारत में एक कमेटी का गठन किया गया और इसे रॉबर्ट ब्रूस द्वारा की गई खोज की दिशा में आगे बढ़ने की जिम्मेदारी सौंपी गई.’’


इसके अनुसार, जल्द ही इस कमेटी ने स्थानीय सिंगफो और काम्प्टी आदिवासियों के पारंपरिक तरीके से स्थानीय चाय का प्रसंस्करण करने की बात खोज निकाली. इसके बाद चार्ल्स एलेक्जेंडर महत्वपूर्ण शख्सियत बनकर उभरे और कई साल तक असम में रहे और स्थानीय लोगों की चाय प्रसंस्करण विधियों के विशेषज्ञ बन गए.


उन्होंने असम में चाय बगान तैयार करने के लिए कमर कस ली लेकिन घने जंगलों, खतरनाक जीव जंतुओं और तकनीकी सहायता न होने से यह काम इतना आसान नहीं था. ब्रूस ने कुछ चीनी नागरिकों के साथ काम किया था जिन्हें कमेटी चाय बागान लगाने के लिए लेकर आई थी.


चाय विशेषज्ञ निंगरोला
किताब के अनुसार, 1837 में ब्रूस, सिंगफो कबीले के सदस्यों की मदद से कोलकाता में ईस्ट इंडिया कंपनी को काफी मात्रा में चाय भेजने में सफल रहे. सिंगफो कबीले के चाय विशेषज्ञ निंगरोला ने चाय की खेती में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उनके वंशज आज भी असम के तिनसुकिया जिले में पारंपरिक तरीके से चाय के प्रसंस्करण में लगे हैं. आखिरकार, मई 1838 में चाय के एक दर्जन बक्सों को टीन के डिब्बों में बंद करके कोलकाता से पहली बार इंग्लैंड, पानी के जहाज से भेजा गया.


मशहूर शेफ और चाय विशेषज्ञ पल्लवी निगम सहाय द्वारा लिखित किताब '''' अ सिप इन टाइम'''' चाय से जुड़े ऐसे ही रोचक किस्सों को समेटे हुए है.

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