नई दिल्लीः Who Was Maharishi Valmiki: ये उत्तर प्रदेश है, जहां अगले साल चुनाव होने वाले हैं. उधर अफगानिस्तान है, जहां बंदूक के दम पर सत्ता पर कब्जे की कोशिश की जा रही है. इन दोनों के बीच खड़े हैं मुनव्वर राणा. शायर हैं और मशहूर हैं. मां के लिए कढ़े गए उनके जज्बाती कलाम कभी पलकों को भिगो देते हैं तो कभी दिलों में टीस भर देते हैं.


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बतौर शायर इस बात के लिए उनकी इज्जत होनी चाहिए. होती भी है और शायद आगे भी यही सम्मानीय नजर उनके लिए बनी रहती, अगर इन सबके आड़े उनकी कट्टरता नहीं आती. 


वाल्मीकि महर्षि क्यों हैं? क्या आप जानते हैं
शायर का नाम बीते 15 दिनों से कोर्ट-कचहरी और पुलिस -जेल के साथ जुड़ कर आ रहा है. वजह है कि उन्होंने तालिबान की बात की और उसके साथ महर्षि वाल्मीकि को जोड़ दिया. वाल्मीकि ऋषि वह नाम हैं जो भारत में करोड़ों की आस्था के कारण हैं.


 


न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व के उन तमाम देशों में जहां-जहां राम आराध्य के तौर पर पूजे और माने जाते हैं वहां वाल्मीकि भी अपना स्थान ऊंचा ही रखते हैं. शायर की कही बातों से अफसोस तो होता ही है, साथ ही दुख भी होता है कि वाल्मीकि महर्षि क्यों हैं? लोग यह भी नहीं जानते हैं.


सिर्फ एक किस्सा भर ही जानते हैं लोग
उनके जीवन से जुड़ा एक किस्सा भर ही लोगों के जेहन में है कि वह कभी रत्नाकर डाकू थे. हालांकि यह भी किवदंतियों से अधिक कुछ भी नहीं है. लेकिन पौराणिक आख्यानों में एक जिक्र मिलता है कि प्रचेता के 10वें पुत्र यानि कि कश्यप और अदिति के वंश में, भृगु कुल के नौवें पुत्र वरुण के घर वाल्मीकि का जन्म हुआ.


हालांकि वाल्मीकि उनका नाम नहीं था. रत्नाकर भी उनका जन्म नाम नहीं है. तब किसी भील जाति के दस्यु (डाकू) ने उन्हें उठा लिया और अपने साथ ले गया था. 


अद्वैत की खोज में निकला एक मानव जो बन गया ऋषि
वाल्मीकि की सुनी-सुनाई कहानी में बचपन के इसी संस्कार के कारण बालक खूंखार हो जाता है, नाम रखा जाता है रत्नाकर. पं. नेहरू की लिखी डिस्कवरी ऑफ इंडिया में रत्नाकर को सत्य की खोज में भटकता एक मनुष्य बताया गया है, जो आत्मा की खोज में है और अद्वैत से मिलना चाहता है.


वह देखता है कि मनुष्यों के रक्त में एकता है, पशुओं और पक्षियों में भी एकता है, फिर ऐसी कौन सी चीज है जो उन्हें अलग बना देती है. रत्नाकर खोज पाता है कि वस्त्र, आभूषण, धन और लालसा जीव-जीव में फर्क बना देती है. वह उस फर्क को दूर करने की कोशिश करता है. ये कोशिश उसके भीतर अशांत भरती चली जाती है. 


ठीक यही ऐसा ही दृश्य बौद्ध काल के दौरान डाकू अंगुलिमाल के साथ देखने को मिलता है. जहां बुद्ध उसे समझाते हैं और कहते हैं अपने अंदर के अकेलेपन को आंसुओं में धो डाल. फिर देख तेरी आंखें साफ हो जाएंगी और तू संसार में अद्वैत को निहार सकेगा. 


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सिर्फ कवि नहीं, विद्रोही भी हैं वाल्मीकि 
दरअसल, वाल्मीकि सिर्फ एक कवि नहीं हैं, बल्कि वह विद्रोही हैं. समाज के लिए उनके मन में सिर्फ करुणा ही नहीं है, बल्कि उस करुणा के साथ अन्याय के लिए उपजने वाला आक्रोश भी है. यही आक्रोश उनकी कविता का आधार भी है. वह क्षुब्ध कवि हैं, जो समाज को किसी भी जगह नहीं बख्शते हैं. फिर चाहे वह राजा हो, रंक हो, चोर-डाकू हो, बनिया-व्यापारी हो या फिर जंगल में तीर-कमान लिए भटकता शिकारी ही क्यों न हो, वाल्मीकि की लताड़ सबके लिए एक बराबर एक जैसी निकलती है. 



इस बात को साबित करने के लिए बहुत सी किताबें नहीं शोधनी पड़ेंगी, बल्कि जाना-माना ज्ञान ही इसके काम आ जाएगा. याद कीजिए तमसा नदी के किनारे की वह कथा जहां क्रौंच पक्षी के शिकारी को उन्होंने कविता में ही श्राप दे दिया था. 


मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वती समाः
यत्क्रौंचमिथुनादेकम्, अवधीः काममोहितम्


वह शिकारी को पूरे क्रोध में धिक्कारते हुए कहते हैं कि जिस तरह तुमने काम में मोहित क्रौंच के इस जोड़े को मार डाला है, मेरा श्राप है कि तू भी कभी शांति का अनुभव नहीं कर पाएगा. यह उनकी करुणा और क्रोध का उदाहरण ही था जो काव्य बनकर फूटा था. 


जब श्रीराम के सामने ही किया विद्रोह
उनके विद्रोह की एक और तस्वीर खुद श्रीराम के सामने ही दिखाई दे जाती है. वाल्मीकि राम के समकालीन हैं और रामायण के एक प्रमुख पात्र भी. आज श्रीराम आराध्य हैं, लेकिन सनातन की एक परंपरा जो आज भी मौजूद है, वह है अन्याय के खिलाफ हमेशा सवाल करना. वाल्मीकि श्रीराम को ही ललकारते हैं. एक क्षत्रिय का दरबार लगा हुआ है, वहां एक कवि बीच सभा में जा खड़ा हुआ है. उसे किसी का भय नहीं है और बिना अहंकार के वैसी ही चाल चलता है जैसे जंगल में सिंह. 


तुलसीदास की एक चौपाई जो श्रीराम के लिए लिखी गई है, वाल्मीकि के लिए सटीक बैठ जाती है. सहज ही चले सकल जग स्वामी, मनहुं मंजुवर कुंजर गामी. 


वाल्मीकि अपनी ओर से सीता के लिए आवाज बनते हैं और जोर देकर कहते हैं. 'दसों दिशाएं सुनें, अग्नि सुने और वायु भी सुन ले. सूर्य-चंद्रमा भी देख-सुन लें. हे रघुवीर! मैं वाल्मीकि, प्रचेता का दसवां पुत्र, ब्रह्म अंश और कश्यप के कुल का वंश. मैं कहता हूं कि मैंने कभी असत्य नहीं कहा. जनक नंदिनी सीता जो आपकी अर्धांगिनी हैं, मेरे आश्रम में पुत्री की तरह आश्रय पाकर रही हैं.



मैंने एक हजार साल तक तपस्या की थी. उस तपस्या का फल है कि मेरी वाटिका में पुष्प मुरझाते नहीं है और आश्रम के खेत अकाल से नहीं सूखते. आश्रम में कहीं भी जरा सा दोष हो तो सूरज वहां किरणें न भेजे, और मुझे मेरी तपस्या का फल न मिले. यह सब कुछ स्पष्ट करता है कि सीता में कोई दोष नहीं है. यह एक ऋषि का वचन है.' 


हालांकि वाल्मीकि को यह बातें भी बहुत बाद में कहनी पड़ी थीं, पहले वह यह चाहते रहे थे कि राम की प्रजा इस बात को समझे कि सीता का हरण हुआ था, वह लंका में मर्जी से नहीं गई थीं, लेकिन जब उन्होंने देखा कि 11 वर्ष तक भी लोगों में परिवर्तन नहीं आया तो वह उसी समाज को उसके राजा के सामने भस्म कर देने तक को आतुर दिखते हैं. समस्या यह है कि आप इस पूरे दृश्य को सिर्फ भक्ति-भाव और चमत्कार के नजरिए से देखते हैं. 


सिंहकवि हैं ऋषि वाल्मीकि
किसी राजा के दरबार में खड़े होकर इस तरह से विद्रोही सुर में बोलने की कल्पना को महसूस करके देखिए तो आपको वाल्मीकि के होने का महत्व पता चलेगा. उन्हें सिंहकवि की संज्ञा दी जाती है. कवियों में वाल्मीकि सिंह हैं. वह थे इसीलिए आज कविता विद्रोही है, सत्याग्रही है और बदलाव की क्षमता रखती है. नहीं तो मनोरंजन के लिए तो जहां और भी है. 
शायर मुनव्वर राणा किस झोंक में वाल्मीकि और तालिबान एक साथ कह गए यह समझ से परे है, लेकिन उनका खुद का कद इस एक बात से कितना हल्का हो गया है, यह उन्हें समझ लेना चाहिए. एक शायर की गरिमा के लिए अभी यही सबसे जरूरी है. 


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