नई दिल्लीः एक बार फिर से हम सब हिंदी दिवस मना रहे हैं. इस दौरान सालों से चली आ रही परंपरा के अनुसार एक बार फिर बताने की कोशिश की जाएगी कि हिंदी कितनी महान है? या फिर हिंदी इतनी महान भाषा क्यों है?


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बताने-सुनाने की कड़ी में यह भी शामिल होगा कि आज के दौर में दुर्भाग्य है कि हम भारतीय होकर सही-सही हिंदी लिख या बोल नहीं सकते हैं? इसके साथ ही भाषणों में वक्ता लोग भारतेंदु हरिश्चंद्र के लिखे छंद निज भाषा उन्नति अहै... को दुहराएंगे. इतने में 14 सितंबर खत्म, हिंदी दिवस समाप्त.


14 सितंबर 1949 को राजभाषा का अधिकार मिला
दरअसल, यह अक्षरशः सत्य है. देश की आजादी के बाद कुछ दो-ढाई साल लगे और 1949 में सितंबर के 14वें दिन हिंदी को राजभाषा का अधिकार दिया गया. देश के 77 प्रतिशत लोगों की आम बोलचाल वाली शैली कि लिपिबद्ध भाषा हिंदी राजभाषा बनी, लेकिन इसके बावजूद इसे विरोध सहना पड़ा.



विरोध इस बात का हिंदी कैसे राजभाषा हो सकती है? सिर्फ हिंदी पट्टी में ही तो हिंदी बोली जाती है. अन्य भाषाओं में कन्नड़, गुरुमुखी, बंगाली, तमिल, कश्मीर में डोगरी जैसी तमाम भाषाएं हैं. सिर्फ हिंदी ही राजभाषा क्यों?  


यह सवाल सन्न कर गया और इस बात को परखा गया कि और कौन सी भाषा है जिसे भारत में व्यापक तौर पर लोग बोलते हैं. 


इस तरह अंग्रेजी को भी मिला राजभाषा का अधिकार
इस सर्वे में सामने निकलकर आई अंग्रेजी. यह वाकई सच था. क्योंकि देश भर में अंग्रेजी हुकूमत का असर ऐसा चढ़ा था कि देश के हर हिस्से में अंग्रेजी बोलने वाले अंग्रेजीदां पैदा हो चुके थे. इसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक भावना भी थी कि अंग्रेज हम पर जुल्म करते थे.



भारत उनका गुलाम था. गुलाम हिंदी बोलता था. इस तरह बेचारी हिंदी गुलामों की भाषा बन गई.


धन-पद मान, कुल से जरा भी ऊंचा आदमी उस वक्त भी अंग्रेजी में बोलना चाहता था. यानी वह ताकत का प्रतीक बनना चाहता था. लिहाजा आजाद भारत में भी अंग्रेजी राजभाषा बन गई. 


इस तरह यह सिद्ध हुआ कि अंग्रेज चले गए, अंग्रेजी छोड़ गए. 


लेकिन, हमने हिंदी को महज एक दिन में बांध दिया
लेकिन आजाद भारत ने हिंदी के साथ क्या किया. देश ने इस भाषा के प्रति गौरव का बोध जगाने के लिए हर साल इस भाषा को एक विशेष दिन तक सीमित कर दिया. 14 सितंबर, यानी वह दिन जब हिंदी को राजभाषा का गौरव तो मिला, लेकिन हर साल इस दिन हिंदी अपनी लाचारी पर रोती ही है. 



सन् 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन में गांधी जी ने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने को कहा था. उन्होंने इस दौरान भारत के कई हिस्सों का भ्रमण कर यह महसूस किया था कि आम भारतीय कई बोलियां बोलता जरूर है, लेकिन सभी के शब्द एक ही भाषा के शब्दों के अलग-अलग रूप हैं. इसे ही समझते हुए उन्होंने ऐसा प्रस्ताव रखा था. 


साल 1953 से हुई हिंदी दिवस की शुरुआत
जब हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया, तब देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने हिंदी के प्रति गांधी जी के प्रयासों को याद किया.


देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस दिन के महत्व को देखते हुए 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाने को कहा था और फिर साल 1953 से हिंदी दिवस की शुरुआत हो गई. 



हिंदी दिवस नाम का दिन निश्चित किया जाना ही हिंदी के लिए अभिशाप जैसा बन गया. क्योंकि आज हिंदी साल में सिर्फ एक ही दिन याद आती है.


कई दफ्तरों और स्कूलों में इस दिन विशेष के लिए हिंदी में ही कार्य किए जाने की ऐसी प्रतियोगिता या अनिवार्यता रखी जाती है, जैसे कि यह भाषा के गौरव का दिन नहीं बल्कि उसकी याद में मनाया जाने वाला श्रद्धांजलि दिवस हो गया हो. 


केक काटकर जन्म दिन की तरह तो हिंदी दिवस नहीं मनाना था
हद तो बीते कुछ सालों में हुई है, जब कुछ उत्साही युवाओं-किशोरों ने हिंदी दिवस भी केक काटकर मनाना शुरू कर दिया. यहां भी केक पर Happy Birth Day Hindi लिखे हुए रूप में अंग्रेजी ही हिंदी को मुंह चिढ़ा रही थी.



ऐसी किसी बात का उल्लेख कर किसी भाषा को कमतर आंकना या गैरजरूरी बताने की कोशिश नहीं है, बल्कि यह ध्यान दिलाने का प्रयास है कि कैसे हिंदी दिवस के मूल उद्देश्य से हम इतने सालों में भटकते आ रहे हैं. 


सुखद है नई शिक्षा नीति में हुई भाषा पर बात
भाषा को कमतर आंकने की बात उठी है तो यह भी बताना लाजिमी है कि बीते कुछ सालों में हिंदी को लेकर हीनभावना भी बढ़ी है. इसके साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में छात्र-छात्राओं पर भाषा का दबाव भी बढ़ा है.


दबाव ऐसा कि विषय संबंधी ज्ञान होने के बावजूद विद्यार्थी अव्वल प्रदर्शन इसलिए नहीं कर पाते हैं कि क्योंकि वह अपनी भाषा से कटे हुए हैं, जबकि उन्हें जानकारी है.



ऐसी स्थिति में भाषा प्रगति की राह में रोड़ा बन जाती है. सुखद है कि नई शिक्षा नीति में इस समस्या पर ध्यान दिया गया है. पीएम मोदी ने भी अपने संबोधन में कहा कि भाषा किसी भी बच्चे की शिक्षा में रोड़ा नहीं बननी चाहिए. छात्र अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार रखता है. 


ध्यान से देखिए.. हमारी दैनिक चर्या में शामिल हैं हिंदी
कायदे से हिंदी किसी दिवस की मोहताज है ही नहीं. यह तो हर रोज की हमारी दैनिक चर्या में शामिल एक नैसर्गिक जरूरत है. जो धारा प्रवाह तरीके से अपने आप ही होती है. यह हर क्रिया में शामिल है. इसके लिए अलग से जोर देने की जरूरत ही नहीं.


आप सहज स्थिति में हैं, सरल हैं. किसी दबाव में नहीं हैं, फिर आप जो भी बोल रहे हैं, वह हिंदी ही है. यह अलग बात है कि उसका स्वरूप दूसरा हो सकता है. वह किताबी खड़ी बोली से अलग हो सकती है. 


हमें हिंदी को लेकर सरल होने की जरूरत
वह ब्रज बोली की तरह, ओ कान्हा सुनियो जरा, हो सकती है. या फिर ए माई, कुछ खाई के दे जैसी भोली-भाली हो सकती है. वह हैदराबाद की तरह मेरे को नई पता जैसी हो सकती है. या फिर भोपाली- बुंदेली की तरह क्या कर रिया है भी हो सकती है.


यह जो भी होगी वह हिंदी ही होगी. बस दिल से होगी और असल में होगी. जब हम इस तरह की सरलता को वाकई में अपना लेंगे तो हिंदी दिवस खुद ब खुद सार्थक होता जाएगा और किसी खास दिन की जरूरत ही नहीं होगी. 


हिंदी की समावेशी क्षमता ही उसकी ताकत है
एक खास बात औऱ भी.. संस्कृतियों के हस्तक्षेप के कारण हर भाषा मिलावटी हो जाती है. हिंदी की समावेशी क्षमता है उसकी असल ताकत है. रेल, स्टेशन, बस, कार, रोजाना, मीटर, कप-प्लेट जैसे कई शब्दों और संज्ञाओं को उनके हर सार्थक अर्थ के साथ ग्रहण कर लिया है.



उर्दू-फारसी के तो कई शब्द हैं. इंग्लिश के शब्दों ने भी खुब जगह बनाई है. लेकिन इसी मिलावट में एक आश्चर्य भी है. English के Look (लुक) का अर्थ है देखना, जिसे भोजपुरी में लौकत (देखने के लिए) क्रिया के तौर पर प्रयोग करते हैं. वाक्य प्रयोग  में लौकत नाही बा का? ऐसे कहते हैं. इसी तरह  Near (पास) शब्द से उच्चारण में मिलता शब्द है नियर. किसी को पास बुलाना हो तो कहेंगे नियरे आवा. 


ऐसे सार्थक होगा हिंदी दिवस
हिंदी खुद में समृद्ध है, इसलिए इसको समृद्ध बनाने के लिए 14 सितंबर के आयोजन की आड़ लेने की बजाय इस दिन को इसके साहित्यिक महत्व, इस भाषा में हुए शोध और इसे समृद्ध बनाने वाले लेखकों-कवियों की यादगार के तौर पर मनाया जाए तो अधिक सार्थक होगा.


कोशिश हो कि हिंदी दिवस के मौके पर नौनिहाल-छात्र या युवा भी भारत की लेखन परंपरा से जुड़ कर उसे समझ सकें. उसकी रचनात्मक शैली का आनंद उठा सकें. ऐसा होता है तो भाषा के प्रति गर्व का भाव खुद ही विकसित होगा और वास्तव में हिंदी दिवस या सप्ताह सार्थक भी होगा.