गुनाः  मैं गुना हूं. मध्य प्रदेश का रहने वाला हूं. इस वक्त जब पूरी दुनिया वैसे भी तबाही के मुंह में जा रही है, मेरी जमीन बर्बरता की चोट से कलपते आंसुओं से भीग गई और दिशाएं नन्हीं नाबालिग चीत्कारों से गूंज से बहरी हो गईं. यह कोई 1857 और 1920 का ब्रितानी हुकूमत का दौर नहीं था. यह तो 15 जुलाई 2020 की नई दास्तान है. आजादी के 74वें जश्न से ठीक एक महीने पहले की दास्तान.


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जब सरकार, न्याय, पुलिस सब अपना है तो इस जमाने में गुना में पुलिस जमीन खाली कराने गई थी. जमीन पर फसल का कब्जा था और फसल उस दलित किसान की थी. जो जब तक सह सकता था अपने खोखले हो चले जिस्म पर बर्बर पुलिस की लाठियां सहता रहा और जब सब कुछ असहनीय हो गया तो उसने कीड़े मारने वाली दवाई पी ली. 


लाठियां बरसाती रही बर्बर पुलिस
उसने अच्छा ही किया कि जहर पी लिया, क्योंकि वह होश में रहता तो अपने जिगर के टुकड़ों की ऐसी चीत्कार देखकर जिंदा ही मर जाता. गुना में हुई इस बर्बरता का भुगतान कितना गुना करके चुकाना होगा, कौन जाने?



वह मार खाते-खाते पुलिस वालों के हाथ जोड़ता रहा, पांव पड़ता रहा लेकिन पुलिस वालों पर कोई असर नहीं पड़ा. वे लाठियां बरसाते रहे. 


बेटी चीखती रही.. पापा उठो न
इतनी पिटाई के बाद जब पिता बेसुध होकर गिर पड़ा तो उसके सात बच्चों में से बड़ी बेटी चीखती हुई उसके पास पहुंची. पिता के सिर को गोद में रखकर बोलती रही, पापा उठो न... उठो न पापा. बाकि भाई-बहनों ने उसे इर्द-गिर्द से घेर लिया.



वीडियो बनाना तो इस देश का नया रिवाज है तो बच्चे चीखते-बिलखते रोते रहे और उनकी चीत्कार देशभर में सुनाई देने लगी. 


पुलिस देखती रही तमाशा
लेकिन इसी वीडियो में असंवेदनशीलता का एक और नमूना दिखा. पुलिस वाले चुपचाप खड़े तमाशा देखते रहे. उन्होंने न तो बच्चों को संभलने दिया, न उन्हें संभाला और न ही किसान को अस्पताल ले जाने की कोशिश करते दिख रहे हैं. बच्चे देर तक अपने पिता को सीने से चिपटाए बिलखते रहे और आकाश की ओर मुंह उठाकर तड़पते रहे. 


इस चीत्कार से पहचानिए सरकार का असली सच
यह मध्य प्रदेश है, जहां 4 महीने पहले ही शिवराज सरकार दोबारा बनी है. यह वही सरकार है जो गरीबों-किसानों के हक के साथ खड़े होने का दावा करती है. इसके पहले कांग्रेस की कमलनाथ सरकार थी,



जिसकी जब सत्ता से बेदखली हो रही थी तो वे नारे लगा रहे थे कि उन्हें गरीबों-कमजोरों और किसानों के साथ खड़े होने का यह सबब मिल रहा है. 


बस वादे हैं वादों का क्या?
मौजूदा भाजपा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का खास क्षेत्र रहा है गुना, वह भी कहते रहे हैं कि आप लोगों के बीच काम करने नहीं दिया जा रहा है. देश भर की और दूसरी पार्टियों को भी देख लीजिए जो कि सिर्फ चुनावों में जागती हैं. गुना मामले ने पानी और तेल को अलग-अलग कर दिया है. यह सरकार और सरकार में शामिल लोगों का असली सच है. 


और पुलिस क्या केवल कमजोर को मारती है?
कानपुर में पुलिस पर हुआ हमला अभी भूला नहीं है. विकास दुबे भले ही मर गया है लेकिन 8 पुलिस वालों की शहादत भुलाई नहीं जा सकेगी. इसके 15 दिन बाद गुना की इस घटना को देख लीजिए जहां पुलिस बर्बर बन बैठी है. यह दोनों ही घटनाएं चीख-चीख कर इस सच को बता रही हैं,



देश में दो अलग-अलग वर्ग के बीच न्याय समान नहीं है. न्याय बल्कि है नहीं. अन्याय ही अन्याय है. इस तरह देशभर की पुलिस व्यवस्था पर सवाल है कि क्या वह वाकई वर्ग, चेहरा, जाति देखकर कार्रवाई का तरीका तय करती है? 


इसलिए साहब, आप ऐसे मामलों को सिर उठाने का मौका न दिया करिए, याद रखिए कि हर आंसू बहाने वाला व्यर्थ में बहे आंसू का मोल लेना शुरू करेगा तो डूबती सियासत को उबारने के लिए एक कच्ची डोरी भी न बचेगी. तब आप क्या कीजिएगा?  सवाल छोटा है, लेकिन जवाब तलाश लीजिए.


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