दुर्गा भाभी, वह क्रांतिकारी वीरांगना जो अंग्रेजों के लिए वाकई बन जाती थीं रणचंडी
शहीदों की जिन चिताओं पर हर बरस मेले लगने चाहिए थे, वहां सन्नाटा है, अंधेरा है, सूखे पत्ते हैं. श्रद्धा सुमन के कुछ सूखे पल्लव भी उन्हें नसीब नहीं. आलम है कि दुर्गा भाभी को क्रांति दिवस के दिन तो याद कर लिया जाता है. लेकिन उनकी जयंती या पुण्यतिथि की याद बमुश्किल जेहन में जोर डालने पर ही आती है.
नई दिल्लीः उत्तर प्रदेश का जिला कौशांबी. बौद्ध-जैन कालीन इस नगरी को काफी समय तक इलाहाबाद से जोड़कर ही जाना जाता रहा है. इस लिहाज से इसका धार्मिक महत्व है. यहीं एक सभागार भवन है.
अमूमन वहां दो-चार सामाजिक बैठकें हो जाती हैं और पास ही शहजाद पुर गांव में एक स्मारक भी है. जिस पर लिखा है. क्रांतिकारी दुर्गा भाभी. जाहिर है यह सभागार भवन और स्मारक आजादी की लड़ाई में अनुपम साहस का परिचय देने वाली मूर्धन्य क्रांतिकारी दुर्गा भाभी की याद में है.
जयंती या पुण्यतिथि के दिन नहीं याद आतीं दुर्गा भाभी
मगर अफसोस, शहीदों की जिन चिताओं पर हर बरस मेले लगने चाहिए थे, वहां सन्नाटा है, अंधेरा है, सूखे पत्ते हैं. श्रद्धा सुमन के कुछ सूखे पल्लव भी उन्हें नसीब नहीं. आलम है कि दुर्गा भाभी को क्रांति दिवस के दिन तो याद कर लिया जाता है. लेकिन उनकी जयंती या पुण्यतिथि की याद बमुश्किल जेहन में जोर डालने पर ही आती है. हमारे क्रांतिकारी इस बेरुखी के हकदार तो नहीं थे.
आज 7 अक्टूबर को उन्हीं पुण्यात्मा, क्रांतिकारी और स्त्रीशौर्य की प्रतीक दुर्गा भाभी की जयंती है. आइये जानते हैं उनके जीवन के पहलू.
1907 में कौशांबी में हुआ जन्म
वीरांगना दुर्गा भाभी का जन्म कौशांबी के सिराथू तहसील के शहजादपुर गांव में सात अक्टूबर 1907 को पंडित बांके बिहारी के घर में हुआ था. दुर्गा भाभी के दादा पंडित शिवशंकर शहजादपुर के जमींदार थे. इनके पिता इलाहाबाद में कलेक्ट्रेट में नाजिर थे. उनका विवाह लाहौर के भगवती चरण वोहरा से हो गया.
भगवती चरण वोहरा अंग्रेजी हुकूमत में रेलवे अफसर थे, लेकिन उनका मन इस अंग्रेजीदां नौकरी में नहीं लगता था. बल्कि वे तो देश को उनसे मुक्त कराने का ही सपना देखते रहते थे.
क्रांतिकारी पति से विवाह और फिर क्रांति को ही अपना लिया
कहते हैं न रहिमन प्रीत सराहिए, मिले हुए रंग दून. पति के क्रांतिकारी भाव ने दुर्गा भाभी की भी देशप्रेम की भावना को बल दिया. लिहाजा वह भी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी (HSRA) की सदस्य बन गईं और इस भूमिका को बड़ी ही सक्रियता से उन्होंने निभाया.
क्रांतिकारी वोहरा की पत्नी होने के नाते HSRA के अन्य सदस्य उन्हें भाभी कहते थे. इस तरह दुर्गावती वोहरा बन गईं दुर्गा भाभी और इसी नाम से जगत प्रसिद्ध हो गईं.
पिस्तौल चलाने में सक्षम थे हाथ
कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान, रानी लक्ष्मी बाई के लिए अपनी कविता में लिखती हैं, वह बरछी, ढाल, कृपाण और कटार चलाना जानती थीं. दुर्गा भाभी भी तकरीबन 50 साल बाद आधुनिक तौर पर यही तेवर लिए हुए थीं. उन्हें पिस्तौल चलाने में महारथ हासिल थी. बम बनाना भी जानती थीं. दुर्गा भाभी का काम साथी क्रांतिकारियों के लिए राजस्थान से पिस्तौल, बम और बारूद लाना और ले जाना था.
1930 में शहीद हो गए पति, लेकिन नहीं हुईं विचलित
फिर आई वह सुबह, जहां उनका सर्वस्व लुट गया. 28 मई 1930 का दिन था. भगवती चरण वोहरा ने बम बनाने का प्रशिक्षण पूरा कर लिया था. क्रांतिकारियों के लिए जरूरत थी कि वह अत्यधिक सक्रियता से अपने काम को अंजाम दें. इसके लिए हथियार औऱ बम का होना जरूरी था.
क्रांतिकारी वोहरा ने बम बनाकर रावी तट पर उसके परीक्षण का निर्णय लिया. लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था. तट पर विस्फोट हो गया और इस परीक्षण वोहरा और उनके कुछ साथी शहीद हो गए. दुर्गा भाभी पर वैधव्य का पहाड़ टूट पड़ा.
क्रांतिकारियों की मदद के लिए हमेशा आगे रहीं
पति के जाने के बाद भी दुर्गा भाभी कमजोर नहीं पड़ीं. बल्कि उन्होंने दोगुनी शक्ति से क्रांति कार्य को जारी रखा. नौ अक्टूबर 1930 को उन्होंने गवर्नर हैली पर गोली चलाई. हमले में गवर्नर तो बच गया, लेकिन सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया था. मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी उन्होंने गोली मारी थी. उन्होंने क्रांतिकारियों की हर संभव सहायता भी की. बल्कि सहायता से जुड़ा भगत सिंह का किस्सा तो मशहूर है.
भगत सिंह को बचा लाईं थीं दुर्गा भाभी
हुआ यूं कि सांडर्स की हत्या के बाद भगत सिंह को लाहौर से निकलना था. लेकिन हर तरफ पुलिस, सीआईडी का पहरा था. ऐसे में काम आईं दुर्गा भाभी.
उनकी मदद से भगत सिंह एक अंग्रेज का वेश बनाकर स्टेशन पहुंचे. दुर्गा भाभी सादे भारतीय लिबास में थीं और उनके पुत्र शचीन्द्र उनकी गोद में थे. अंग्रेज शक भी नहीं कर पाए और दुर्गा भाभी भगत सिहं को निकाल लाईं.
15 अक्टूबर 1999 को हुईं विदा
इस घटना के बाद दुर्गा भाभी लाहौर लौट आई थीं. जब 1929 में भगत सिंह और राजगुरु ने आत्म समर्पण किया, तब उन्होंने अपनी सारी बचत उनके ट्रायल में लगा दी थी. गहने भी बेच दिए थे. और उस समय तीन हजार रुपयों का इंतजाम किया था. आज़ादी के बाद वह गाज़ियाबाद में रहने लगी थीं.
इस तरह आजादी का स्वप्न खुली आंखों से देखने वाली पूरा होने के बाद उसे लंबो वर्षों तक जीकर देखने वाली दुर्गा भाभी 15 अक्टूबर 1999 को इस दुनिया से विदा हों गईं.
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