जिनके नाम पर शुरू हुआ विक्रम संवत्, जानिए उस वीर चंद्रगुप्त की कहानी
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी की चैत्र नवरात्रि के पहले दिन के साथ ही भारतीय हिंदू नववर्ष की शुरुआत हो गई है. इसी के साथ विक्रमी संवत 2077 की शुरुआत भी हुई है. यही वर्ष गणना पंचांग का आधार है. ईस्वी सन से 57 साल पुराना यह संवत्सर वीरता, अखंडता और गौरवशाली इतिहास का वाहक भी है.
नई दिल्लीः जिस समय का जिक्र छिड़ा है, वह इतिहास के कई हजार पन्ने पीछे पलटने पर आएगा. भारतभूमि के लिए वह स्वर्णिम काल था. गणना के हिसाब से इसे 380-412 ईस्वी के आसपास का कहा जाता है. यह समय था गुप्त वंश के उदार साम्राज्य का और इस दौरान सम्राट की गद्दी पर बैठा था वह बांका, जिसे विक्रमादित्य कहा जाता है.
यह कहानी उसी की है. वीरता ऐसी समय उसे कभी भूल नहीं सका और उदारता ऐसी कि संस्कृति के हर पहलू पर उसकी अमिट छाप है.
एक संक्षिप्त परिचय
चीनी यात्रा फाह्यान 380 ईस्वी के आस-पास भारत आया था. इस दौरान वह अनेक राज्यों में घूमा और भारतवर्ष का भ्रमण किया. गुप्त वंश के शासन काल में फाह्यान 6 वर्षों तक रहा. वह लिखता है कि यह समय जब नदियां अपने पूरे वेग से बह रही हैं और बारिश अपने समय पर होती है.
यह ऐसा देश है जहां सामान्य जन कृषि करते हैं और व्यापारी भी प्रसन्न हैं. यह गुप्तवंश का शासन है, औऱ चंद्रगुप्त सम्राट की गद्दी पर बैठे है. उनके पिता समुद्रगुप्त भी तेजस्वी रहे हैं और चंद्रगुप्त इसी परंपरा को बढ़ा रहे हैं. मालवा, काठियावाड़, गुजरात और उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिलाकर उसने अपने पिता के राज्य का और भी विस्तार किया है.
शकों का आक्रमण वे भारत आने लगे थे
भारतवर्ष में विदेशी आक्रांताओ के आने की शुरुआत बहुत पहले ही हो गयी थी. इसी क्रम में शकों ने भारत में ईसा से 100 साल पहले ही आना शुरू किया था. शुंग वंश के कमजोर होने के बाद भारत में शकों ने पैर पसारना शुरू कर दिया था. संपूर्ण भारत पर शकों का कभी शासन नहीं रहा.
भारत के जिस प्रदेश को शकों ने पहले-पहल अपने अधीन किया, वे यवनों के छोटे-छोटे राज्य थे. सिन्धु नदी के तट पर स्थित मीननगर को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया. भारत का यह पहला शक राज्य था. इसके बाद गुजरात क्षेत्र के सौराष्ट्र को जीतकर उन्होंने अवंतिका पर भी आक्रमण किया था.
उस समय महाराष्ट्र के बहुत बड़े भू भाग को शकों ने सातवाहन राजाओं से छीना था और उनको दक्षिण भारत में ही समेट दिया था.
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चंद्रगुप्त ने शकों को हराया
विदेशी आक्रांताओं के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए चंद्रगुप्त विजय के लिए निकल गया. उनका सेनापति आम्रकार्दव था, जो उन्हीं की तरह वीर और कूटनीतिज्ञ भी था. जब चंद्रगुप्त गद्दी पर बैठा तो उसकी दो प्राथमिकताएं थीं. रामगुप्त के समय में उत्पन्न हुई अव्यवस्था को दूर करना और उन म्लेच्छ शकों का उन्मूलन करना, जिन्होंने ने केवल गुप्तश्री के अपहरण का प्रयत्न किया था, बल्कि कुलवधू की ओर भी दृष्टि उठाई थी.
अपनी राजशक्ति को सुदृढ़ कर उसने शकों के विनाश के लिए युद्धों का प्रारम्भ किया. गुप्तकाल से पहले अवन्ती पर आभीर व अन्य शूद्रों या का शासन था. अपने युद्धक अभियान में चंद्रगुप्त ने आभीर को हरा दिया और इस तरह शकारि की उपाधि उसने धारण की. यह समय 385 ईस्वी के आसपास का था. चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को तभी से विक्रमी संवत कहा जाता है.
लेकिन विक्रमी संवत ईस्वी सन से 57 वर्ष आगे है
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का समय ईसा के 300 साल बाद का है, लेकिन विक्रमी संवत ईसा से 57 वर्ष आगे है. इससे स्पष्ट है कि शकों का दमन पहले भी हुआ है. कहीं-कहीं इसी विक्रमी संवत को मालव संवत कहा जाता है. इतिहासकारों में मतभेद है कि चंद्रगु्प्त विक्रमादित्य ने ही मालव संवत को अपनी विजय के बाद विक्रमी संवत का नाम दिया था. जबकि कुछ इतिहासकार ईसा से पूर्व भी एक और विक्रमादित्य के होने की पुष्टि करते हैं.
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मालव संवत के प्रवर्तक राजा विक्रमादित्य
ईसा की शुरुआत से 100 वर्ष पहले भारत में शक आ चुके थे और 16 महाजनपदों में बंटी भारतीय शासन व्यवस्था को धीरे-धीरे तोड़ना शुरू कर दिया था. सिंध से शुरू हुई उनकी यह यात्रा 50 सालों में भारत के मध्य में अवंतिका जिसे उज्जैन कहा जाता है, वहां तक पहुंच चुके थे.
इनका राजा नह्वान था, जिसने रास्ते में खूब मराकाट मचाई थी और कहते हैं कि लूट-पाट भी की थी. इसी शक राजा का दमन विक्रमादित्य ने किया था और ईसा से 57 साल पहले विक्रमी संवत की शुरुआत की थी.
चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (शासन: 380-412 ईसवी) गुप्त राजवंश का राजा था, समुद्रगुप्त का पुत्र 'चन्द्रगुप्त द्वितीय' समस्त गुप्त राजाओं में सर्वाधिक शौर्य एवं वीरोचित गुणों से सम्पन्न था. शकों पर विजय प्राप्त करके उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की. वह 'शकारि' भी कहलाया. वह अपने वंश में बड़ा पराक्रमी शासक हुआ. चीनी यात्री फ़ाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा.
एक और मतः चंद्रगुप्त द्वितीय ने गुजरात के शकों को हराया था
एक मत यह भी है कि गुजरात-काठियावाड़ के शकों का दमन कर उनके राज्य को गुप्त साम्राज्य में मिला लेना लेना चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है. इसी कारण वह भी 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' कहलाया. कई सदी पहले शकों का इसी प्रकार से दमन कर सातवाहन सम्राट 'गौतमी पुत्र शातकर्णि' भी 'शकारि' कहलाया था.
गुजरात और काठियावाड़ की विजय के कारण अब गुप्त साम्राज्य की सीमा पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत हो गई थी.
महरौली का लौह स्तंभ
गुजरात-काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रपों के अतिरिक्त गान्धार कम्बोज के शक-मुरुण्डों (कुषाणों) का भी चंद्रगुप्त ने संहार किया था. दिल्ली के समीप महरौली में लोहे का एक 'विष्णुध्वज (स्तम्भ)' है, जिस पर चंद्र नाम के एक प्रतापी सम्राट का लेख उत्कीर्ण है. इतिहासकार बताते हैं कि यह लेख गुप्तवंशी चंद्रगुप्त द्वितीय का ही है.
इस लेख में चंद्र की विजयों का वर्णन करते हुए कहा गया है, कि उसने सिन्ध के सप्तमुखों (प्राचीन सप्तसैन्धव देश की सात नदियों) को पार कर वाल्हीक (बल्ख) देश तक युद्ध में विजय प्राप्त की थी.
शायद इन्हीं शक-मुरुण्डों ने ध्रुवदेवी (चंद्रगुप्त की पत्नी) पर हाथ उठाने का दुस्साहस किया था. अब ध्रुवदेवी और उसके पति चंद्रगुप्त द्वितीय के प्रताप ने बल्ख तक इन शक-मुरुण्डों का उच्छेद कर दिया, और गुप्त साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा को सुदूर वंक्षु नदी तक पहुँचा दिया.