नई दिल्लीः वीर सावरकर को लेकर वामपंथी इतिहासकारों ने शब्दों का भ्रमजाल बुना. उन्होंने इस कदर उन्हें खिलाफ माहौल बनाया कि आज जिस सावरकर को आधुनिक भारत के निर्माता के तौर पर जानना चाहिए था उनका वजूद ही सवालिया निशान के साथ स्थापित कर दिया गया. लेकिन, झूठ के पांव तो होते नहीं और काठ की हांडी तो एक ही बार चढ़ेगी. ऐसे में वामपंथी लेखकों की साजिश भी छिपी नहीं रह पाती है. 


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गांधी जी का लेख, सावरकर ब्रदर्स
सावरकर को लेकर महात्मा गांधी का रुख बेहद स्पष्ट था. जिस क्षमादान पत्र के जरिए सावरकर की वीरता पर सवाल उठाए जाते हैं, देखिए खुद महात्मा गांधी ने उस विषय में क्या लिखते हैं. अपने पत्र 'यंग इंडिया' में 26 मई, 1920 को प्रकाशित लेख 'सावरकर ब्रदर्स' में गांधी जी ने लिखा है-



"भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों की कार्रवाई के चलते कारावास काट रहे बहुत से लोगों को शाही क्षमादान का लाभ मिला है. लेकिन कुछ उल्लेखनीय राजनीतिक अपराधी हैं, जिन्हें अभी तक नहीं छोड़ा गया है. इनमें मैं सावरकर बंधुओं को गिनता हूं. वे उन्हीं संदर्भों में राजनीतिक अपराधी हैं, जिनमें पंजाब के बहुत से लोगों को कैद से छोड़ा जा चुका है. इस बीच क्षमादान घोषणा के पांच महीने बीत चुके हैं फिर भी इन दोनों भाइयों को स्वतंत्र नहीं किया गया है."


सावरकर से क्यों कांपती थी ब्रितानी हुकूमत?
अब सवाल ये है कि क्षमादान मांगने के बावजूद ब्रितानी हुकूमत सावरकर की रिहाई आखिर क्यों नहीं कर रही थी. दरअसल वो जानती थी कि सावरकर हिन्दुस्तान को अपनी मातृभूमि ही नहीं बल्कि एक पुण्य भूमि भी मानते हैं और रिहा होने के बाद वे दोबारा से स्वतंत्रता संग्राम का अलख जगाना शुरू कर देंगे. 


गांधी जी ने कई बार बताया है प्रेरक
लेफ्ट लिबरल गैंग को बेशक ये बात समझ में ना आई हो कि सावरकर ब्रितानी हुकूतम के लिए कितनी बड़ी चुनौती थे लेकिन फिरंगी उसी समय समझ गए थे कि जिस शख्स का नाम विनायक दामोदर सावरकर है वो अकेले अपने दम पर ही ब्रितानी हुकूमत की चूले हिलाने का माद्दा रखता है. 



गोरे फिरंगियों के अलावा इस सच को बापू ने भी महसूस किया था तभी तो अपने पत्र यंग इंडिया में उन्होंने लिखा था मौजूदा शासन-प्रणाली की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले देख लिया था. आखिर बापू ने ऐसा क्यों लिखा था?


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सावरकर की लिखी किताब और अंग्रेजों का डर
दरअसल अपने इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान सावरकर ने ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस 1857’ नामक एक क्रांतिकारी किताब लिखी. ये किताब हिंदुस्तान के क्रांतिकारियों के लिए गीता साबित हुई. क्योंकि सावरकर की इस किताब के आने से पहले लोग सन 1857 की क्रांति को महज एक सैनिक विद्रोह ही मानते थे लेकिन इस किताब के जरिए सावरकर ने मुख्य रूप से दो चीजें हिन्दुस्तानियों के मन में पूरी तरह स्थापित कर दी.



पहली ये कि 1857 में जो कुछ हुआ वो सिपाही विद्रोह नहीं बल्कि आजादी की पहली लड़ाई थी. दूसरी बात उन्होंने ये बताई कि किन गलतियों की वजह से 1857 का स्वतंत्रता आंदोलन नाकाम हुआ.


किताब पर लगी पाबंदी
अंग्रेजों ने जब इस किताब का मजमून देखा तो उनके कान खड़े हो गए. उन्हें लग गया कि अगर ये किताब हिन्दुस्तानियों के बीच पहुंच गई तो अगला अखिल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ना केवल बहुत जल्द शुरू हो जाएगा बल्कि उस विद्रोह को कुचलना भी नामुमकिन हो जाएगा. इसलिए फिरंगियों ने छपने से पहले ही सावरकर की इस किताब पर पाबंदी लगा दी.


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