सिंह संक्रांति/ घी संक्रांति पर घी खा लीजिएगा, वरना अगले जन्म में बनेंगे घोंघा !
भाद्रपद मास में जब सूर्य कर्क राशि से सिंह राशि में प्रवेश करता है तब इस समय को सिंह संक्रांति कहते हैं. सिंह संक्रांति इस बार 17 अगस्त को है. पर्वतीय निवासी इस मौके पर घी संक्रांति मनाते हैं. इस मौके पर एक अजीब परंपरा है.
नई दिल्लीः उत्तर में हिमालय पर्वत की चोटियों से लेकर दक्षिण में सागर की गहराई में जहां तक भारतीयता है, वहां का चप्पा-चप्पा समृद्ध संस्कृति से पालित और पोषित है. वन-पर्वत, नदी, ताल, झील, झरने, जीव, पशु सभी हमारी इस विराट संस्कृति का हिस्सा हैं. यहां तक कि ग्रह-नक्षत्रों की चाल और ऊष्मा को भी भारतीय मनीषा ने जीवन पद्धति में स्थान दिया है.
भारतीय मनीषा में है पर्वों की संस्कृति
वैसे भी भारत देश, पश्चिमी देशों के तरह लंबे समय तक ठहरे रहने वाले मौसम का देश नहीं है. यहां तो जब भी सूर्य-चंद्र, नदी-पर्वत की चाल बदली, वातावरण बदल जाता है. इसी को ध्यान में रखते हुए सटीक समय पर सटीक त्योहार की कल्पना की गई ताकि उल्लास के ही बहाने आरोग्य का लाभ भी हो.
मकर संक्रांति का पर्व तो पूरे देश में मनाया ही जाता है, लेकिन पर्वतीय निवासी (यानी उत्तराखंड-हिमाचल) के लोग घी संक्रांति का पर्व मनाते हैं.
कर्क से सिंह राशि में प्रवेश करेंगे सूर्य
शास्त्र के अनुसार, भाद्रपद मास में जब सूर्य कर्क राशि से सिंह राशि में प्रवेश करता है तब इस समय को सिंह संक्रांति कहते हैं. सिंह संक्रांति इस बार 17 अगस्त को है. पौराणिक मान्यता तो है कि नदियों में स्नान करके दान आदि करना चाहिए. लेकिन कोरोना संकट में नदी स्नान निषेध है.
ऐसे में घर में ही स्नान करते हुए नदी स्नान का संकल्प लें और तीर्थों के जल का स्मरण करते हुए स्नान करें.
भगवान सूर्य को जल अपर्ण कर ब्राह्मण को व जरूरतमंद को अनाज-दक्षिणा का दान करें. इस संक्रांति में घी के सेवन का विशेष महत्व है.
पहाड़ की अनूठी संस्कृति
उत्तराखंड में घी संक्राति का पर्व विशेष तौर पर मनाया जाता रहा है. यह यहां की प्राचीनता और संस्कृति का प्रतीक है. रजवाड़ों के समय में यह दिन शिल्पियों को उनका शिल्पकला के प्रदर्शन का दिन होता था.
घी संक्रांति के दिन राजा शिल्पियों को पुरस्कार देते थे. लोक मानस यह पर्व घी संक्रात और ओलग के तौर पर पहचाना जाता है.
मनाई जाती है घी संक्रांति
मूलतः यह पर्व ऋतु उत्सव है. साथ ही खेती -किसानी की परंपरा को जीवित रखने की प्रेरणा का पर्व है. घरों की महिलाएं इस दिन अपने बच्चों के सिर में ताजा मक्खन मलती हैं और उनके स्वस्थ व दीर्घजीवी होने की कामना करती हैं.
रविवार को सोशल मीडिया पर एक फनी मैसेज भी वायरल होता मिला. इसमें लिखा था कि भाई घी खा लेना नहीं तो घोंघे हो जाओगे.
आज परंपरा का बना रहे हैं मजाक
हालांकि इसमें परंपरा का एक तरीके से मजाक बनाया गया है. लेकिन असल में यह मान्यता है कि कुमाऊं क्षेत्र में. इस दिन मक्खन या घी के साथ बेडू रोटी (उड़द की दाल की पिट्ठी भरी रोटी) खानी चाहिए.
लोक मान्यताएं और दंत कथाएं कहती हैं इस दिन घी न खाने वाले व्यक्ति को दूसरे जन्म में गनेल (घोंघे) की योनि प्राप्त होती है.
आरोग्य का वरदान है यह पर्व
अब आयुर्वेद के नजरिए से देखें तो ऐसी मान्यताएं संस्कृति के सहारे आरोग्य का वरदान हैं. बारिश का मौसम जहां हमारी प्रतिरोधक क्षमता पर असर डाल सकता है, वहीं गाय का घी इम्यूनिटी का सबसे बेहतर स्त्रोत है.
चरक संहिता भी कहती है कि गाय का शुद्ध घी स्मरण शक्ति, बुद्धि, ऊर्जा, बलवीर्य, ओज बढ़ाता है, गाय का घी वसावर्धक है तथा वात, पित्त, बुखार और विषैले पदार्थों का नाशक है.
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